Monday, 31 July 2017

चीखों को दफ्न करता सियासत का ढिंढोरा

रविकांत सिंह 'द्रष्टा'
 'रसरी आवत जात ते सिल पर परहिं निशान'। जब कोमल रस्सी के रगड़ की बारम्बारता से कठोर पत्थर भी घिस जाता है तो भला द्वेष और ईर्ष्या से भरे विवादित बयानों व अराजक तत्वों की कारगुजारियों की बारम्बारता, क्या सामाजिक सौहार्द को खराब नहीं करेंगी?

आर्थिक समस्याओं के बोझ तले किसान आत्महत्या कर रहे हैं, आतंकी सीमाओं पर हमारे जवानों के सिर काट रहे है, कश्मीर में बेरोजगार युवा आतंक की पनाह में पत्थरबाजी कर रहा है, गौमाता के इच्छाधारी बछड़े खुंखार जानवर की तरह बेकसूरों को चिर-फाड़ रहे हं, देश का आधा भाग बाढ़ की चपेट में है, खेत-खलिहान, बाजार की बबार्दी देख लोग चीख-चिल्ला रहे हैं लेकिन सियासत का ढिंढोरा बार-बार इन चीखों को दफ्न कर दे रहा है।
'मार के रोअहु न देवे अहो साथी' यह आत्मा को झकझोर देने वाले उस लोकगीत के बोल हैं जिसे यूपी, बिहार के आदिवासी गाते हैं। इस लोकगीत में आदिवासी अपनी पीड़ादायी व्यथा को दूसरे साथियों से व्यक्त करते हुए बताते हैं कि ''सरकार के भ्रष्ट लोग हमारी जमीन, अधिकार छिन लेते हैं, महिलाओं, बच्चियों के साथ बलात्कार करते हैं और जब हम इनका विरोध करते हैं तो ये हमें इस प्रकार मारते हैं कि रोने की आवाज तक दफ्न हो जाती है दोस्तों"। देशवासियों ने ऐसी दमनकारी नीतियों से त्रस्त होकर नये विकल्प और सत्ता परिवर्तन का मन बनाया।
मीडिया को भांपू बनाकर 'अच्छे दिन आने वाले हैं ' नारे के साथ भारतीय जनता पार्टी 2014 में केन्द्र की सत्ता पर काबिज हुयी थी। बीजेपी नेता नरेन्द्र दामोदर दास मोदी भारतीय नागरिकों के चहुंमुखी विकास व सुरक्षा की शपथ के साथ देश के 14 वें प्रधान मंत्री बने। पूर्ण बहुमत की इस एनडीए सरकार के तीन साल पूरे हो चुके हैं। इस बीच सरकार के मंत्री और बीजेपी कार्यकर्ता प्रत्येक साल के पूरे होने या नई योजनाओं के आरम्भ होने पर जश्न मनाते रहे हैं। उनके जश्न का कवरेज मुख्यधारा की मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक होता रहा है।
मीडिया कवरेज पर देश का प्रत्येक जागरुक नागरिक इस सरकार के कामकाज पर अपनी नजÞर रखे है। देशवासी यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या वास्तव अच्छे दिन आ गये हैं?, क्या महंगाई कम हो गई है?, क्या लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं और शिक्षा आसानी से प्राप्त हो रहा है?, क्या बेरोजगारी कम हो गई है? और यदि अच्छे दिन आ गये हैं तो फिर किसान भाई आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? इस प्रकार के सभी प्रश्न अब भी जीवंत है। 
समाचार पत्रों व चैनलों ने इन सभी प्रश्नों को किस प्रकार दबा दिया लोग अब भी हैरान हैं। अब आप पिछले तीन सालों में हुए विभन्न घटनाक्रमों से उठी चीखों और शोर को सुनीये और समझिये। जरा याद करिए उन नेताओं के बयानों को जिन्हें कल तक देश नहीं जानता था। सरकार बनते ही इन नेताओं के कलुषित विचारधारा से भरे भड़काऊ बयानों व गैर जिम्मेदाराना कार्यप्रणाली ने पूरे देश के प्रेम व सौहार्द के वातावरण को दूषित करने में गति दी। इसके बाद समाचार चैनलों ने बयानों को ब्रेकिंग न्यूज बनाकर दिन भर बार-बार कई दिनों तक दिखाते रहे। ऐसे नेताओं के भड़काऊ बयान देने का तात्पर्य, लोगों के मन में ईर्ष्या व द्वेष पैदा करना होता है और चैनलों के अपरिपक्व रिर्पोटर व संपादक इनके मकसद को पूरा कर देते हैं। भीड़ को उकसाने वाले इन समाचारों से अक्सर श्रोता उकता जाते हैं। तब माहौल को गर्म रखने के लिए भड़काऊ बयान पर प्रतिक्रिया लेने रिपोर्टर विपक्षी नेताओं के पास पहुंच जाते हैं। इस प्रकार विवादित नेता और उनके बीच अप्रत्यक्ष मीडिया गठबंधन रहीम के उस दोहे को मूर्त रुप दे देते हैं जिसमें कहा गया है 'रसरी आवत जात ते सिल पर परहिं निशान'। जब कोमल रस्सी के रगड़ की बारम्बारता से कठोर पत्थर भी घिस जाता है तो भला द्वेष और ईर्ष्या से भरे विवादित बयानों व अराजक तत्वों की कारगुजारियों की बारम्बारता, क्या सामाजिक सौहार्द को खराब नहीं करेंगी? मीडिया के ही कुछ लोग मीडिया संस्थानों पर आरोप लगा रहे हैं कि मीडिया को आमजनों की आवाज बनने की बजाय वह नेताओं का भंोपू बन कर रह गया है।
एफटीआईआई से लेकर जेएनयू विवाद तक, साहित्यकार कालबुर्गी की हत्या से लेकर एकलाख की हत्या तक, असहिष्णुता से लेकर गौ मांस खाने तक, उत्तर प्रदेश में हिन्दु-मुस्लिम दंगो से लेकर ठाकुर और दलित दंगों तक, मद्रास यूनिवर्सिटी में दलित छात्र की आत्महत्या से लेकर मध्य प्रदेश में किसानों की आत्महत्या तक। महामारी की तरह इस देश में शुरू हुयी एक के बाद एक अराजकतापूर्ण घटनाएं उसी विवादित बयानों से निर्मित कलुषित वातावरण का परिणाम है। ऐसा नहीं है कि केन्द्र सरकार ने इन घटनाओं से उठे वाद-विवाद, शोर,चीख-चिल्लाहट को रोकने का प्रयास नहीं किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस ईर्ष्या-द्वेष से भरे वातावरण में भी 'मन की बात' करते रहे । उन्होंने महात्मा गॉंधी जी के 'स्वच्छ भारत अभियान' को पुन: शुरू कर न केवल आमजनों को बल्कि दंगाईयों के हाथों में भी तलवारों की जगह झाड़ू पकड़ा दिया, बनारस को क्योटो बनाने और देश में बुलेट ट्रेन चलाने के सपने दिखाए, भारत के लोगों को ही नहीं पूरे विश्व को योग करने की सीख दे डाली। इन सभी कार्यों से जब बात नहीं बनी तो उन्होंने नोटबंदी ही कर दी। इसके बाद तो अपनी ही रोजी-रोटी के जुगाड़ में आमजन जो फंसे वे आज तक नहीं निकल पाये। नोटबंदी से देश की आर्थिक स्थिति डवांडोल न हो इसलिए अब के बरस आधी रात को जीएसटी लागू कर सरकार ने आजादी की तरह फिर से जश्न मनाया और केन्द्र सरकार ने चीखों को दबाने का चालाकी भरा राजनीतिक प्रपंच किया। 

देश के सभी राज्यों में बीजेपी की सत्ता हो इसके लिए यह राजनीतिक प्रपंच कितना आवश्यक है, राज्यों में हुए चुनाव और बीजेपी को मिले मतों की प्रतिशतता में हुयी बढ़ोत्तरी से पता चलता है। राजनीतिक दल मीडिया को भंोपू बनाकर अपनी आवाज का स्तर इतना ऊपर उठा देते हैं कि किसानों के परिवार और सैनिकों की माताओं का रुदन, कश्मीरियों की तड़प, बाढ़ में डूब रहे आमजनों की चीख सब दफ्न हो जाता है और राजनीतिक दल को सत्ता लाभ प्राप्त हो जाता है।

रविकांत सिंह 'द्रष्टा'
(स्वतंत्र पत्रकार)
drashtainfo@gmail.com
7011067884 


Tuesday, 25 July 2017

द्रष्टा देगा मुक्ति

संपादकीय

देश एक भ्रामक दौर से गुजर रहा है। सत्ता पर काबिज रहने के लिए नेता राजनीति से अधिक आत्मबल और मनोबल को तोड़ने वाले घृणित कार्यों पर विश्वास कर रहे हैं। इन नेताओं ने धर्म को भी संकट में डाल दिया है। केन्द्र की सत्ता हो या राज्य की, शासन कर रहे नेताओं ने द्वेश पैदा करने वाले भाषणों, प्रेस वार्ताओं व सोशल मिडिया के जरिये सही को गलत और गलत को सही कह कर नागरिकों में भ्रम और भय का वातावरण बना दिये हैं। इस भ्रम और भय से भरे वातावरण का शिकार अधिकतर किशोर और युवा हो रहे हैं। भय और भ्रम से अज्ञानता का विस्तार हो रहा है और अब देश का भविष्य उस पथ का पथिक होने को आमादा है जिस पथ का विरोध भारतीय संस्कृति और सभ्यता पुरातन काल से करती चली आ रही है। समाज में चोरी, छिनैति, डकैती, ठगी, हत्या, बलात्कार जैसे घृणित कार्य करने वालों की आवभगत जोर-शोर से होने लगी है। उनकी आवभगत उनके जैसा ही दुष्कर्मी कर रहा है लेकिन धर्म या राजनीति का चोला पहनकर। समाज भी उन्हें बेझिझक स्वीकार कर रहा है। समाज के लोग कुछ को चुनकर नेता बना दे रहे हैं तो कुछ को धर्म रक्षक स्वामी। लोगों के मन में परमार्थ के विचार की जगह स्वार्थ की भावना अति प्रबल होने लगी है। 
इस भय और भ्रम से विस्तार कर रही अज्ञानता को रोकने की शक्ति वर्तमान में मिडिया के पास है और मिडिया ही रोकेगी, लेकिन एक सत्य यह भी है कि इस तरह की अज्ञानता को विस्तार देने में मुख्यधारा की कुछ प्रमुख मिडिया संस्थानों का भी योगदान है। टीवी चैनलों पर तार्किक बहस की जगह अक्सर नेता कुतर्क करते रहते है और चैनल अपना टीआरपी बढ़ाने में लगा रहता है। जहां नेताओं के भड़काऊ भाषा से उनके चहते खुश होते है तो वहीं जागरुक जनता आहत होती है। नेता, एंकर अपनी मर्यादा तोड़ते है,और टीवी चैनल पत्रकारिता के मानदण्ड।
मिडिया कोई समाज नहीं है बल्कि वह हर समाज की आवाज है। मिडिया सरकार की गलत नीतियों की आलोचना करती है तो उसे अपनी भी गलतियों पर उसी जोर-शोर के साथ आलोचना करनी चाहिए। आन लाईन सर्वे, एग्जिट पोल, पेड न्यूज, मीडिया के अस्त्र-शस्त्र बन गये है। इनके प्रयोग से पाठकों और दर्शकों में भ्रम और भय पैदा हो जाता है। इस तरह पिछले 20 सालों से प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचारों निजी टीवी चैनलों पर प्रसारित हुए बहसों ने पाठकों और दर्शकों के दिमाग में तर्क की जगह कुतर्क का बीजारोपण कर दिया है। कुतर्क से उत्पन्न भ्रम को दूर कर ‘द्रष्टा’ अपने पाठकों को भय मुक्त करेगा। 

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