रविकांत सिंह 'द्रष्टा' |
आर्थिक
समस्याओं के बोझ तले किसान आत्महत्या कर रहे हैं, आतंकी सीमाओं पर हमारे जवानों के
सिर काट रहे है, कश्मीर में बेरोजगार युवा आतंक की पनाह में पत्थरबाजी कर रहा है, गौमाता
के इच्छाधारी बछड़े खुंखार जानवर की तरह बेकसूरों को चिर-फाड़ रहे हं, देश का आधा भाग
बाढ़ की चपेट में है, खेत-खलिहान, बाजार की बबार्दी देख लोग चीख-चिल्ला रहे हैं लेकिन
सियासत का ढिंढोरा बार-बार इन चीखों को दफ्न कर दे रहा है।
'मार
के रोअहु न देवे अहो साथी' यह आत्मा को झकझोर देने वाले उस लोकगीत के बोल हैं जिसे
यूपी, बिहार के आदिवासी गाते हैं। इस लोकगीत में आदिवासी अपनी पीड़ादायी व्यथा को दूसरे
साथियों से व्यक्त करते हुए बताते हैं कि ''सरकार के भ्रष्ट लोग हमारी जमीन, अधिकार
छिन लेते हैं, महिलाओं, बच्चियों के साथ बलात्कार करते हैं और जब हम इनका विरोध करते
हैं तो ये हमें इस प्रकार मारते हैं कि रोने की आवाज तक दफ्न हो जाती है दोस्तों"।
देशवासियों ने ऐसी दमनकारी नीतियों से त्रस्त होकर नये विकल्प और सत्ता परिवर्तन का
मन बनाया।
मीडिया
को भांपू बनाकर 'अच्छे दिन आने वाले हैं ' नारे के साथ भारतीय जनता पार्टी 2014 में
केन्द्र की सत्ता पर काबिज हुयी थी। बीजेपी नेता नरेन्द्र दामोदर दास मोदी भारतीय नागरिकों
के चहुंमुखी विकास व सुरक्षा की शपथ के साथ देश के 14 वें प्रधान मंत्री बने। पूर्ण
बहुमत की इस एनडीए सरकार के तीन साल पूरे हो चुके हैं। इस बीच सरकार के मंत्री और बीजेपी
कार्यकर्ता प्रत्येक साल के पूरे होने या नई योजनाओं के आरम्भ होने पर जश्न मनाते रहे
हैं। उनके जश्न का कवरेज मुख्यधारा की मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक होता रहा है।
मीडिया
कवरेज पर देश का प्रत्येक जागरुक नागरिक इस सरकार के कामकाज पर अपनी नजÞर रखे है। देशवासी
यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या वास्तव अच्छे दिन आ गये हैं?, क्या महंगाई कम
हो गई है?, क्या लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं और शिक्षा आसानी से प्राप्त हो रहा है?,
क्या बेरोजगारी कम हो गई है? और यदि अच्छे दिन आ गये हैं तो फिर किसान भाई आत्महत्या
क्यों कर रहे हैं? इस प्रकार के सभी प्रश्न अब भी जीवंत है।
समाचार
पत्रों व चैनलों ने इन सभी प्रश्नों को किस प्रकार दबा दिया लोग अब भी हैरान हैं। अब
आप पिछले तीन सालों में हुए विभन्न घटनाक्रमों से उठी चीखों और शोर को सुनीये और समझिये।
जरा याद करिए उन नेताओं के बयानों को जिन्हें कल तक देश नहीं जानता था। सरकार बनते
ही इन नेताओं के कलुषित विचारधारा से भरे भड़काऊ बयानों व गैर जिम्मेदाराना कार्यप्रणाली
ने पूरे देश के प्रेम व सौहार्द के वातावरण को दूषित करने में गति दी। इसके बाद समाचार
चैनलों ने बयानों को ब्रेकिंग न्यूज बनाकर दिन भर बार-बार कई दिनों तक दिखाते रहे।
ऐसे नेताओं के भड़काऊ बयान देने का तात्पर्य, लोगों के मन में ईर्ष्या व द्वेष पैदा
करना होता है और चैनलों के अपरिपक्व रिर्पोटर व संपादक इनके मकसद को पूरा कर देते हैं।
भीड़ को उकसाने वाले इन समाचारों से अक्सर श्रोता उकता जाते हैं। तब माहौल को गर्म रखने
के लिए भड़काऊ बयान पर प्रतिक्रिया लेने रिपोर्टर विपक्षी नेताओं के पास पहुंच जाते
हैं। इस प्रकार विवादित नेता और उनके बीच अप्रत्यक्ष मीडिया गठबंधन रहीम के उस दोहे
को मूर्त रुप दे देते हैं जिसमें कहा गया है 'रसरी आवत जात ते सिल पर परहिं निशान'।
जब कोमल रस्सी के रगड़ की बारम्बारता से कठोर पत्थर भी घिस जाता है तो भला द्वेष और
ईर्ष्या से भरे विवादित बयानों व अराजक तत्वों की कारगुजारियों की बारम्बारता, क्या
सामाजिक सौहार्द को खराब नहीं करेंगी? मीडिया के ही कुछ लोग मीडिया संस्थानों पर आरोप
लगा रहे हैं कि मीडिया को आमजनों की आवाज बनने की बजाय वह नेताओं का भंोपू बन कर रह
गया है।
एफटीआईआई
से लेकर जेएनयू विवाद तक, साहित्यकार कालबुर्गी की हत्या से लेकर एकलाख की हत्या तक,
असहिष्णुता से लेकर गौ मांस खाने तक, उत्तर प्रदेश में हिन्दु-मुस्लिम दंगो से लेकर
ठाकुर और दलित दंगों तक, मद्रास यूनिवर्सिटी में दलित छात्र की आत्महत्या से लेकर मध्य
प्रदेश में किसानों की आत्महत्या तक। महामारी की तरह इस देश में शुरू हुयी एक के बाद
एक अराजकतापूर्ण घटनाएं उसी विवादित बयानों से निर्मित कलुषित वातावरण का परिणाम है।
ऐसा नहीं है कि केन्द्र सरकार ने इन घटनाओं से उठे वाद-विवाद, शोर,चीख-चिल्लाहट को
रोकने का प्रयास नहीं किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस ईर्ष्या-द्वेष से भरे वातावरण
में भी 'मन की बात' करते रहे । उन्होंने महात्मा गॉंधी जी के 'स्वच्छ भारत अभियान'
को पुन: शुरू कर न केवल आमजनों को बल्कि दंगाईयों के हाथों में भी तलवारों की जगह झाड़ू
पकड़ा दिया, बनारस को क्योटो बनाने और देश में बुलेट ट्रेन चलाने के सपने दिखाए, भारत
के लोगों को ही नहीं पूरे विश्व को योग करने की सीख दे डाली। इन सभी कार्यों से जब
बात नहीं बनी तो उन्होंने नोटबंदी ही कर दी। इसके बाद तो अपनी ही रोजी-रोटी के जुगाड़
में आमजन जो फंसे वे आज तक नहीं निकल पाये। नोटबंदी से देश की आर्थिक स्थिति डवांडोल
न हो इसलिए अब के बरस आधी रात को जीएसटी लागू कर सरकार ने आजादी की तरह फिर से जश्न
मनाया और केन्द्र सरकार ने चीखों को दबाने का चालाकी भरा राजनीतिक प्रपंच किया।
देश
के सभी राज्यों में बीजेपी की सत्ता हो इसके लिए यह राजनीतिक प्रपंच कितना आवश्यक है,
राज्यों में हुए चुनाव और बीजेपी को मिले मतों की प्रतिशतता में हुयी बढ़ोत्तरी से पता
चलता है। राजनीतिक दल मीडिया को भंोपू बनाकर अपनी आवाज का स्तर इतना ऊपर उठा देते हैं
कि किसानों के परिवार और सैनिकों की माताओं का रुदन, कश्मीरियों की तड़प, बाढ़ में डूब
रहे आमजनों की चीख सब दफ्न हो जाता है और राजनीतिक दल को सत्ता लाभ प्राप्त हो जाता
है।
रविकांत सिंह 'द्रष्टा'
(स्वतंत्र पत्रकार)
(स्वतंत्र पत्रकार)
drashtainfo@gmail.com
7011067884
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