पंचायती राज की उपेक्षा और विकास के दावे
रविकांत सिंह |
आजाद भारत में पंचायती राज की स्थापना एक क्रांति के रुप में जाना जाता है। गॉंवों को आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से बनी पंचायती राज संस्थाओं का उदय होना भारत के चहुमुखी विकास के लिए अतिमहत्वपूर्ण था। भारत में अलग-अलग सम्प्रदाय, संस्कृति के लोग निवास करते है। आजादी के समय ग्रामीण आबादी लगभग 85 प्रतिशत थी। शहरों से दूर मूलभूत सुविधाओं के अभाव में जीवन गुजारने वाली यह आबादी हजारों साल से पीड़ित थी।
देश के शासकों ने इनका भरपुर शोषण किया। सामन्तों और जमींदारों ने तो इन्हें प्रगति के लिए पैर जमाने तक का अवसर नहीं दिया। रोटी और मानव संसाधन का इंतजाम करने वाली इस ग्रामीण आबादी को तथाकथित सभ्य समाज ने जातियों में बांटकर मानव विकास को बहुत गहरी हानि पहुंचाई। यही कारण था कि विदेशी शासकों ने बार-बार आक्रमण कर इस देश को छिन्न-भिन्न कर डाला। इस देश में राजे- रजवाड़ों के खजाने भरे रहते थे और किसान भूखा-नंगा, रात-दिन इनकी गुलामी करता था। देश की ऐसी दुर्गति और अव्यवस्था को जानने समझने वालों ने यह ठान लिया था कि विदेशी शासकों से मुक्त होना है तो हमें किसानों को आत्मनिर्भर बनाना होगा। तभी आजादी को वास्तविक माना जा सकता है।
इस वास्तविक आजादी की पहल करने वाले नेताओं में महात्मा गॉधी, स्वामी सहजानन्द सरस्वती, जवाहरलाल नेहरु व भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारी नाम शामिल हैं। भगत सिंह इस अव्यवस्था के विरोध में स्वयं को नास्तिक मानते थे। उन्हें जातिगत धार्मिकतावादी व्यवस्था स्वीकार नहीं थी। उनका मत था कि आजादी के बाद जिसमें किसानों की राय शामिल नहीं है ऐसे भूमि अधिग्रहण जैसे काले कानून को खत्म किया जायेगा।
Phoenix farm South Africa |
महात्मा गॉंधी ग्राम स्वराज की पहल आजादी से पहले ही कर चुके थे। उन्होंने 1904 में साउथ अफ्रिका के डरबन शहर से 13 मील दूर ‘फिनिक्स फार्म’ की स्थापना की थी। पहले 20 एकड़ जमीन पर फार्म शुरु हुआ और फिर 80 एकड़ जमीन खरीदी गयी। वहां रहने वाले कई भारतीयों ने सहयोग किया। 1910 में 1100 एकड़ में जोहानसबर्ग का टालस्टाय फार्म और फिर भारत में साबरमती: गुजरात, भितिहरवा : बिहार और सेवाग्राम: महाराष्ट्र में सत्याग्रह कर रहे परिवार वालों को सामुदायिक जीवन अपनाने के लिए ऐसे आश्रमों की महात्मा गॉंधी ने स्थापना की। स्वराज के लिए जरुरी यह एक महत्वपूर्ण कदम था। महात्मा गॉधी का मत था कि आत्मनिर्भरता ही गुलामी से मुक्त कर सकता है। सूत कातने से लेकर स्वयं टायलेट साफ करने तक के कामों से लोगों में स्वावलंबन के जरिये आत्मनिर्भरता का महत्व बताते रहे। बिना लड़े ही लड़ाई जीत लेने की अद्भूत कला का ज्ञान देने वाले महात्मा गॉधी के मार्ग को छोड़ने व इन संस्थाओं की उपेक्षा का ही परिणाम है कि आज भी किसान भ्रष्ट राजनेताओं और अधिकारितंत्र पर निर्भर है।
1960 के दशक में पंचायती राज संस्थान की शुरुआत की गयी। पंचायती राज को तीन प्रमुख कार्य सौंपे गये जो विकास संबंधी प्रशासनिक और राजनैतिक थे। मेहता सिफारिशों में विकास को महत्व दिया परन्तु तीनों कार्यों में सामंजस्य स्थापित करना था। लेकिन राजस्व का नहीं मिलना दिये गये कार्यो को पूरा करने में बाधक था। जिला स्तर के अधिकारियों पर अत्यधिक दबाव के चलते उनका पंचायती राज संस्थानों के प्रति रवैया विरोधात्मक हो गया। धीरे-धीरे विधायकों और अन्य राजनीतिज्ञ पंचायतीराज संस्थानों के नीतिगत महत्व को समझने लगे। उन्होंने इसे प्रतियोगिता समझते हुए पंचायती राज के प्रतिनिधियों को अपना राजनैतिक विरोधी बनाना शुरु कर दिये। राजनितिज्ञों ने इन संस्थानों के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन छेड़ दिया। स्थानीय स्तर के अधिकारी वर्ग के उदासीन रवैये ने विकास और प्रशासन कार्यों में पंचायती राज संस्थानों की भूमिका को कम कर दिया। जिसके फलस्वरुप इन संस्थानों का पतन होने लगा और संस्थाएं अपने उद्देश्यों से भटक गयीं। इसके विपरित विकास के हवाई किले बनाने वाली राजनैतिक भूमिका अधिक मुखर हो गयी।
रविकांत सिंह 'द्रष्टा'
(स्वतंत्र पत्रकार)
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