-रविकांत सिंह 'द्रष्टा'
‘कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट’ की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में रिपोर्टरों को काम के दौरान पूरी सुरक्षा अभी तक नहीं मिल श पायी है। भारत में भ्रष्टाचार कवर करने वाले पत्रकारों की जान को खतरा है। पत्रकारों की सुरक्षा पर निगरानी रखने वाली सीपीजे एक अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठित संस्था है। 2011-2015 में आयी इस रिपोर्ट में कहा गया था कि ‘‘ 1992 के बाद से भारत में 27 ऐसे मामले दर्ज हुए हैं जब पत्रकारों का उनके काम के सिलसिले में कत्ल किया गया। लेकिन किसी एक भी मामले में आरोपियों को सजा नहीं हो सकी है। संस्था के रिपोर्ट में उस समय तीन भारतीय पत्रकारों जगेन्द्र सिंह, अक्षय सिंह और उमेश राजपूत का भी जिक्र था। सीपीजे की रिपोर्ट के पहले, साल 2015 में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के एक अध्ययन में कहा गया था कि ,‘पत्रकारों की हत्याओं के पीछे जिनका हाथ होता है वे बिना सजा के बच कर निकल जाते हैं’। इन प्रतिष्ठित संस्थाओं की रिपोर्टों के बाद भी देश में लगातार हो रही पत्रकारों की हत्या पर सरकारों की चुप्पी से, देश के नज़रिये में हो रहे बदलाव को देखा जा सकता है।
आज देश के नागरिकों के मन में एक साथ तमाम विचारों की आंधी चल रही है। धर्म, जाति, देशभक्ति, देशद्रोह, राष्ट्रवाद-राष्ट्रगीत, इस प्रकार के राजनीतिक विषय समाचार माध्यमों से लोगों के विचारों में स्थापित हो गये हैं। कुछ इस आंधी को भांप कर अपने विचार व्यक्त कर पा रहे हैं तो, कुछ नहीं। देश में इस तरह का दौर आजादी के बाद से ही शुरु है। पत्रकारों पर हमले और उनकी हत्या इस आंधी की गति को तेज कर रहे हैं। किसान, जो लोगों के भूखे पेट को भरता है, पत्रकार जो व्यक्ति की जिज्ञासा को शान्त करता है। उस किसान की आत्महत्या और पत्रकार की हत्या यह केवल लोकतंत्र के लिए खतरा नहीं है, यह मानवीय दृष्टिकोण में हो रहे बदलाव को भी व्यक्त कर रहा है।
पौराणिक कथा के अनुसार प्राचीन समय में एक रत्नाकर नाम का दस्यु (डाकू) था जो अपने इलाके से आने-जाने वाले यात्रियों को लूटकर अपने परिवार का भरण पोषण करता था। एक बार नारद मुनि भी इस दस्यु के शिकार बने। जब रत्नाकर ने उन्हें मारने का प्रयत्न किया तो नारद जी ने पूछा कि तुम यह अपराध क्यूं करते हो? रत्नाकर ने कहा अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए? नारद मुनि बोले अच्छा तो क्या जिस परिवार के लिए तुम यह अपराध करते हो वह तुम्हारे पापों का भागीदार बनने को तैयार है ? इसको सुनकर रत्नाकर ने नारद मुनि को पेड़ से बांध दिया और प्रश्न का उत्तर जानने के लिए अपने घर चला गया। घर जाकर उसने अपने परिवार वालों से यह सवाल किया लेकिन, उसे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि कोई भी उसके पाप में भागीदार नहीं बनना चाहता। घर से लौटकर उसने नारद जी को स्वतंत्र कर दिया। रत्नाकर सत्यमार्ग दिखाने के लिए, नारद को धन्यवाद देता है और ज्ञान प्राप्ति के लिए घोर तप करता है। इसी डकैत को आज हम महर्षि वाल्मीकि के रुप में जानते हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार नारद की उस वक्त जो भूमिका थी वही, आज के पत्रकारों की मानी जाती है। गौर से देखा जाय तो इस प्रकार के प्रसंग हमारे सामने प्रतिक्षण उपस्थित होते रहते हैं। हाल ही में दिवंगत हुई पत्रकार गौरी लंकेश इसका उदाहरण हैं। देश के अलग-अलग राज्यों में अपने अधिकारों के लिए हथियारों से लड़ रहे नक्सलियों को गौरी लंकेश सही और गलत का फर्क समझाती थीं। उनसे प्रभावित होकर कई नक्सलियों ने हिंसात्मक लड़ाई छोड़कर, वैचारिक लड़ाई लड़ना शुरु कर दिया। क्या आज नागरिकों में पत्रकारों के प्रति वही नजरिया और सम्मान है, जो हिन्दू धर्म शास्त्रों के मुताबिक नारद का था, नहीं। आज पत्रकारों के प्रति देश का नज़रिया बदल रहा है। देश के नागरिक पत्रकार व पेशेवर पत्रकारिता के अन्तर को समझ नहीं पा रहे हैं। इसे जानने वाले बोल नहीं पा रहे और समझने वाले सोच नहीं पा रहे हैं। कुछ बौद्धिक सोच वाले सरकारी समाचार चैनलों पर मीडिया मंथन भी कर रहे हैं। लेकिन क्या परिणाम निकल पा रहा है?
अपनी कलम की शक्ति का लोहा मनवाने वाले एमएम कालबूर्गी, नरेन्द्र दाभोलकर, जगेन्द्र सिंह, अक्षय सिंह, राजदेव रंजन, गौरी लंकेश आदि तमाम पत्रकारों की हत्या हो चुकी है। गौरी लंकेश की हत्या, मीडिया में चर्चा का विषय बन जाती है। सोशल मीडिया में मानव समाज को कलंकित करने वाले शब्द पोस्ट किये जाते हैं और उस हत्या पर ‘कुतिया’ लिखने वाले ऐसे वाहियात व्यक्ति को देश का प्रधानमंत्री अनुसरण करता है। इसी बीच गौरी लंकेश के बारे में मनगढंत बातों की आंधी बहने लगती है और हत्या की वजह को छोड़कर सोशल मीडिया में फैल रहे झूठ से जंग छिड़ जाती है। देश के जानेमाने पत्रकार इस जंग में कूद पड़ते हैं परिणाम, गौरी लंकेश के विचारों का विस्तार देश जान ही नहीं पाता।
देश के आम नागरिकों में जो देखा, वह यह कि एक पत्रकार की हत्या हो गयी है जिसको कुछ लोग हिन्दू विरोधी लेखक बोल रहे हैं। हत्या के विरोध में दिल्ली के प्रेस क्लब सहित देश के अलग-अलग हिस्सों में कुछ पत्रकार प्रदर्शन कर रहे हैं। लूटपाट में, गैंगवार के दौरान, प्रेम प्रपंच के चलते, जायदाद के लिए, वर्चस्व खत्म करने के लिए हुयी हत्याओं की तरह ही, पत्रकारों की हत्या को भी देश के अधिकांश लोगों ने केवल एक सामान्य घटना माना है।
पत्रकार का न तो जीवन सामान्य है न ही, आम नौकरियों की तरह किसी मीडिया संस्थान में पत्रकारिता करना। पत्रकार हर क्षण अपने निजी जीवन, पेशे व कार्यक्षेत्र की चुनौतियों से लगातार जुझता है। वह अपनी रोजी-रोटी विचारों से ही कमाता है। उसका रहन-सहन वैसा ही है जैसे निर्धन व धनवान रहते है, लेकिन वह पलपल दूसरों के सूख के लिए जीता है। वह अपनी शिक्षा, ज्ञान, सामर्थ्य के अनुसार समाज को देखता है, उसे परखता है। निर्धन, धनवान, बलवान के बीच कैसे सामंजस्य स्थापित हो, मानवीय संतुलन बना रहे वह इस बात पर विचार करता है। वह राजनीतिज्ञों और सरकारों की, अपने नज़रिये के मुताबिक आलोचना करता है ताकि नागरिकों के जीवन में सुधार हो सके। वह खाते-पीते, सोते-जागते, उठते बैठते केवल यही विचार करता है कि लोगों को तार्किक व जागरुक कैसे बनाया जाय। वह स्वयं किस परिस्थिति में है ये कम सोचता है और शोषित समाज की दशा कैसे सुधरे इस पर अधिक समय देता है। वह दबे कुचले लोगों के विकास में ही अपने विचारों का विकास देखता है। भला ऐसे पत्रकारों की हत्या को अन्य हत्याओं की तरह कैसे माना जा सकता है।
''एक राजनेता सत्ता के लिए समाज से छल कर सकता है, एक व्यापारी अपने लाभ के लिए देश को ठग सकता है, एक नौकरशाह सरकार के इशारे पर जनता के लिए दमनकारी हो सकता है, आम व्यक्ति भय के कारण अपनी रोजी-रोटी के लिए अमानवीयता को सहन कर सकता है लेकिन एक पत्रकार किसी भी परिस्थिति में अमानवीय और देशद्रोही नहीं हो सकता।''
आज से हजारों साल पहले आदिकाल में मानव गुफाओं मेंरहता था। उसने अपनी जीवनशैली को चट्टानों पर चित्र बनाकर व्यक्त करता था ताकि वहां से गुजरने वाले यह जान सकें की वह कैसे रहता था। धिरे-धिरे बोली और बाद में लिपी का मानव ने विकास किया। पाली, ब्राह्मी, खरोष्ठी आदि भाषाओं सहित आज हम संस्कृत अंग्रेजी आदि सैकड़ों भाषाओं को जानते और बोलते हैं। अर्थात् आदिकाल से ही मानव में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राकृतिक है। समग्र विश्व के लोग इसकी स्वतंत्रता को लेकर सहमत हैं। हमारे देश के संविधान में इसका ही महत्व है विद्वान इसी को लोकतंत्र मानते है। विश्व का कोई भी देश हो, उस देश का सत्ताधीश यदि किसी वस्तु से डरता है तो, वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से डरता है। इसी से सत्ता छिन जाने का उसे भय सताता रहता है। किसी भी देश का संविधान अपने नागरिक को अभिव्यक्ति की कितनी स्वतंत्रता देता है यह एक अलग विषय है लेकिन यही स्वतंत्रता उस देश की परम्पराओं को जन्म देती है। यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानव में प्राकृतिक नहीं होता तो, आज हम अपने अधिकारों के लिए नहीं लड़ रहे होते और न ही हमें आजादी मिलती। हम भी राजशाही परम्पराओं की बेड़ियों में जकड़े होते।
हमारे देश के संविधान में शासन किया कैसे जाय इससे ज्यादा महत्व व्यक्ति की प्राकृतिक स्वतंत्रताओंको दिया गया है, ताकि लोगों में भाईचारा, एकता बनी रहे। संविधान बनाने वालों को यह पता था कि इस देश में कई धर्मों के लोग रहते हैं, उनकी जीवनशैली, भाषा, बोलीयां एक दूसरे से भिन्न है। इन्हें एकजूट रखने के लिए, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आवश्यक है। किसी भी देश के शक्तिशाली होने का प्रमाण उस देश में नागरिकों की एकता होती है। आम नागरिक को जो संवैधानिक अधिकार प्राप्त है वही पत्रकारों को भी प्राप्त है। आज सोशल मीडिया में जो कुछ लिखा जा रहा है इसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की देन है। कुछ लोग इस मुफ्त की जगह का दुरुपयोग कर रहे हैं तो, कुछ प्रयोग और उपयोग।
पत्रकारों के प्रति बदल रहे देश के नज़रिये में सोशल मीडिया का भी योगदान है। अराजकता फैलाने वाले सोशल मीडिया का दुरुपयोग कर कुछ गैर व नौसिखिए पत्रकारों की बात करके, सादगीपूर्ण बेदाग छवि के पत्रकारों को भी उसी जमात में खड़ा कर दे रहे हैं। मीडिया संस्थानों में पत्रकारिता का चोला ओढ़कर घूस आये, मुनाफाखोर गैर पत्रकारों को मीडिया घरानों द्वारा तवज्जो देने से पत्रकारों की छवि व पेशा बदनाम हो रहा है। कई बार देश ने प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों के ख्यातिलब्ध पत्रकारों को दलाली करते हुए देखा है। संस्थानों द्वारा उन पर कार्रवाई करने की बजाय, पत्रकारिता को दूषित करने वाले ऐसे पत्रकारों के वेतन को बढ़ाकर मीडिया संस्थान उन्हें अपने साथ रखते हैं और पहले से अधिक महत्व देते हैं।
मीडिया संस्थानों द्वारा राजनीतिक दलगत प्रेम को भी देशवासी समझ रहे हैं। पत्रकारों के प्रति देश के नजरिये में बदलाव की ये मुख्य वजह है। पत्रकारों के साथ हो रही बर्बरता और उनकी हत्या का विरोध देश के नागरिक उसी एकजूटता से क्यों नहीं कर रहे हैं जैसे, निर्भया को न्याय दिलाने के लिए एकजूट हुए थे। पत्रकार तो ज्यादातर आम लोगों के हितों के लिए ही लिखता है फिर आम नागरिक इनके साथ क्यों नहीं खड़ा होता है? क्या राजनीतिक खेमेबंदी के नजरिये से लोग पत्रकारों को भी देखना शुरु कर दिये हैं? बहरहाल पत्रकारों पर लगातार हो रहे हमले और इस पर आम नागरिकों का मौन, मीडिया संस्थानों का सरकारी अप्रत्यक्ष गठबंधनों से कहा जा सकता है कि देश की सोच बदल रही है। ..क्रमशः जारी है....
रविकांत सिंह 'द्रष्टा'
(स्वतंत्र पत्रकार)
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