डाॅ0 राकेश राणा |
इतना तो तय है कि आपकी स्वतंत्रता और सुविधाएं निरन्तर कम होती जायेगी। यह आपकी इच्छा पर निर्भर नहीं करेगा। दुनियां के ताकतवर देश बाजार के साथ मिलकर आपकी इच्छाओं, आकांक्षाओं और निजताओं को गिरवी रखेगें।
यह कहना अभी मुश्किल है कि वायरस और वैश्वीकरण में कौन जीतेगा। दुनियां देर-सबेर कोरोना महामारी के इस संकट से तो उभर ही जायेगी। इसके बाद समूचे संसार के सम्मुख जो नए ढंग के संकट खड़े होगें उनके संकेत अभी से मिलने लगे है। दुनियां के बाजार और सरकार इसे एक अवसर में बदल लेने की हर संभव कोशिश करेगें। जिसका परिणाम होगा दुनियां शायद पूरी तरह बदल जाए। यह ठीक वैसे ही घटित होने वाली स्वभाविक प्रक्रिया में सब कुछ घटित होता जायेगा, जैसे किसी भयानक तूफान के बाद सब बदल चुका होता है। मै उन सियासी कयासों में सीधे हस्तक्षेप नहीें कर रहा हूं जो सोशल मीडिया की सुर्खियां बने हुए है। यह अमेरिका का कोई अमानवीय कूटनीतिक कृत्य है या स्वयं चीन की कोई चाल है या चूक। लेकिन दुनियायी अनुभव बताते है कि साम्राज्यवादी ताकतें अपनी ताकत के बल पर चुनौतियों को अवसरों में बदल लेने के हथकंडों में माहिर रही है। अंर्तद्वंद वाजिब है दुनियां में महाशक्तियों के पास जैविक हथियारों का जमा जखीरा किस लिए है? ये मानवता के उपासक है या सत्ता के भूखे? क्या मानवीय मास्क पहनकर बाजार के खिलाड़ी कोई बडा गेम तो नहीं खेल रहे है? इन तमाम शंकाओं से कैसे आश्वस्त हुआ जाए? भय, अफवाह और हक़ीक़त मौजूदा परिदृश्य पर कहां कितनी है कहना मुश्किल है।
कुछ साल पहले स्वाइन फ्लू और अब कोरोना संकट के दौरान टी0वी0 चैनलों की जो गैर-जिम्मेदाराना भूमिका नजर आयी यह भी, कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है। डर का व्यापार इस दौर की मुख्य प्रवृत्ति है। दहशत दीजिए टी0आर0पी0 लिजिए। वहीं चिकित्सा क्षेत्र में सक्रिय मल्टीनेशनल कम्पनियां अपने बाजार का विस्तार विश्व भर में करने पर आमादा दिखती हैं। यह डर से उपजे लॉक डाउन की अंदरुनी सच्चाई है। कुछ साल पहले फैला स्वाइन फ्लू इसका पुख्ता प्रमाण है। अमेरिका ने स्वाइन फ्लू की दवा के साइड इफेक्ट के खिलाफ किसी भी किस्म के अदालती आग्रहों से उन दवा कंपनियों को मुक्त कर दिया था। जबकि उन दवाओं के साइड इफेक्ट अभी भी हैं। स्वाइन फलू की दवाओं के खिलाफ अमेरिका में जबरदस्त आक्रोश आज भी है। कंपनियों को उपभोक्ता्ओं के मुकदमों से बचाने के लिए अमेरिका ने दवा कंपनियों को मुकदमेबाजी के दायरे के बाहर क्यों किया? यह सब उस वक्त की इमरजेंसी के नाम पर दुनियां के उपर थोपा गया। जिस तरह की अफवाहे अभी सुर्खिया पा रहीे है, वे निराधार नहीं है। उस समय भी स्वाइन फ्लू के लिए एक दवा कंपनी अमेरिका में अपनी दवा का पेटेंट करा चुकी थी। जो अब तक दुनियां के बाजार से अरबों बटोर चुकी है।और दुनियां अभिशप्त है इन स्थितियों में जीने के लिए। वायरस आते रहेंगे, फिर उनकी दवा आयेगी, हम सब खायेगें, हमारे आने वाली नस्ले उनके टीका लगवायेगी। यह क्रम जारी रहने वाला है, क्योंकि दुनियां के पास जैविक हथियारों का एक बड़ा जखीरा मौजूद है। साम्राज्यवादी राष्ट्र सेना और सरहदों पर नहीं लडते हैं उनको अपने वर्चस्व स्थापित करने के लिए बाजार माकूल जगह मिलती है। जहां जोखिम कम है और आमदनी ज्यादा।
दो बड़ी नायाब तकनीके आज दुनियां के शक्तिशाली देशों के पास जमा हो चुकी है-इंफाॅरमेशन टैक्नोलाॅजी और बायो-टैक्नोलाॅजी। यह सभ्यताओं के विकास और मानव-कल्याण के लिए करिश्माई परिदृश्य का निर्माण कर सकती है। पर जब दुनियां वर्चस्व की होड़ में शामिल हो जाए तो, यह कल्याण नहीं खात्मा भी कर सकती है। इस खतरे का अगर इतना अतिरेकी आंकलन ना भी किया जाए। तब भी इतना तो तय है कि आपकी स्वतंत्रता और सुविधाएं निरन्तर कम होती जायेगी। यह आपकी इच्छा पर निर्भर नहीं करेगा। दुनियां के ताकतवर देश बाजार के साथ मिलकर आपकी इच्छाओं, आकांक्षाओं और निजताओं को गिरवी रखेगें। यह सब कैसे ठीक होगा वैसे ही जैसे सब कुछ खुशी-खुशी समारोहात्मक समर्थन में आप अचेत से तालियां बजाते हुए होने देते हो। वैसे ही धीरे-धीरे होता जायेगा।
अब बहुराष्ट्रीय निगमों के आर0एण्ड डी0 खेमें दिन रत जुटेंगें। अपनी उन तकनीकियों के बाजार विस्तार में, जिन्हें इस डर ने जरुरी बना दिया है। ऑनलाइन टैक्नोलाॅजी का बाजार बढ़ेगा। उन्हें शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में बड़ी संभावनाएं नजर आएंगी। यह कोरोना बहुत कुछ कर जायेगा। गरीब से गरीब देशों की सरकारें भी बायो-टैक्नोलाॅजी के बडे़ बज़ट पास करेंगी। इनफार्मेशन टैक्नोलाॅजी निगरानी और निजता से जुड़े क्षेत्रों में प्रवेश के निर्बाध अधिकार पा जायेगी। आपका मानवीय स्वतांत्रय बीते दिनों की बात हो जायेगा। सबके भले और आपात आवश्यकता के नाम पर यह अवसर बाजार भी भुनायेगा और सरकारे तो तलाश में रहती ही है कि कब लोगों की स्वतंत्रता को कम करने के नियम-कानून हमारे हाथ मे आए। कोरोना-क्राइसिस के नाम पर दुनियां भर की सरकारों ने यह सब करना शुरु भी कर दिया है। बाजार तो पहले से ही मुस्तैद रहता है ऐसे मौकों की तलाश में। कोरोना किट, केरोना वैक्सीन, कोराना मैडिसीन सब तैयार है। भारतीय अखबारों में तो केरोना बेड तक के विज्ञापन छप रहे है। वहीं इस क्राइसिस के साथ दुनियां में निगरानी-तंत्र से जुड़े उपकरणों का बाजार तेजी से बढ़ेगा। स्वास्थ्य क्षेत्र के बड़े खिलाड़ी बहुराष्ट्रीय निगम किस तरह विकासशील देशों को इसके खतरों से सुरक्षित करने के नाम पर अपनी गिरफ्त में लेगी, यह खेल शुरु हो चुका है। यह बड़ा संकट गरीब देशों के आर्थिक तंत्र को लील जायेगा। जिससे उभरना बड़ी चुनौती होगी।
कोरोना-क्राइसिस जैसी घटनाएं इस छद्म वैश्वीकरण की कलई खोलती है। पूरी दुनियां अपनी-अपनी दाढ़ी की आग बुझाने में मगशूल दिखती है। हर तरफ लाॅकडाउन है, मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे सब बंद है। सब सबसे कट जाना चाहते है अपने-अपने घरों में कैद हो जाना चाहते है। हवाई यात्राओं की आवा-जाही रोक सीमाएं सील कर दी गई। गजब का नजारा है दुनियां का। संकट से जूझने की ये शैली समाज ने विकसित की होती तो, इसमें साझे प्रयास दिखते। चूंकि यह बाजार का सुझाया उपचार है इसलिए डरे रहो। एक-दूसरे का सहयोग नहीं संघर्ष करो, प्रतिस्पर्धा करो। तभी बाजार गुलजार होगा।
इस वैश्विक संकट से दुनियां आपसी सहयोग से बहुत आसानी से पार पा सकती थी। पूरे विश्व को मिलजुल कर एक इको-सिस्टम बनाना चाहिए था। वायरस संक्रमण से जुड़ी सूचनाओं का आपस में आदान-प्रदान करना चाहिए था। विश्व बंधुत्व का संदेश देकर संकट में एकजुटता का परिचय देना चाहिए था। इस संकट पर काबू पाने के लिए किस देश को क्या जरुरत है। इसका पूरा मैकेनिज्म बनाना चाहिए था। कहां डॉक्टरों की कमी है, कहां दवाएं नहीं है, कहां संसाधनों का अभाव है। इस वैश्विक महामारी को मिलकर हराने की जरुरत थी। जिसके लिए कोई वैश्विक रणनीति नजर नहीं आयी। अफ़सोस है! हम कैसे वैश्वीकरण के दौर में है? यह सुर-असुर का संघर्ष अभी जारी है वायरस जीतेगा या वैश्वीकरण अभी देखना बाकी है।
लेखक युवा समाजशास्त्री है!
mail:ranarakesh@gmail.com#9958396195
absolute correct,,, this pandemic must be handled by open mind ... narrow thinking can not solve the problem.
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