Friday, 14 August 2020

जश्न की खुशी और जंग का हौसला ,दोनों जरूरी

प्रदीप कुमार

 क्या आजाद होने के बाद भारत के गांव, हमारी ग्राम पंचायतें, स्थानीय नगर निकाय, मारी कृषि, उद्यम, शिक्षा, रोजगार व कर व्यवस्था के संचालन से लेकर हमारी सार्वजनिक प्राकृतिक संपदा तक सरकारी नियंत्रण से मुक्त हो पाये ?

मुल्क की आजादी को लेकर दो तारीखें बेहद अहम हैं एक तो 15 अगस्त 1947 जब हमने अपनी आजादी का जश्न मनाया था और दूसरी 9 अगस्त 1942 जब हमने अपनी आजादी की जंग का खुला एलान किया था। 15 अगस्त की अहमियत को समझने के लिए जरूरी है कि हम 9अगस्त की अहमियत को खास तवज्जो देकर समझें , ये जाने कि दोनों में फर्क क्या है। एक हमें अपनी खुदमुख्तारी की शुरूआत की याद दिलाती है तो दूसरी उसे हासिल करने की हमारी व्यापक जद्दोजहद, हिम्मत , हौसले और एकजुट कुर्बानियों की । समाजवादी चिन्तक और नेता डा राममनोहर लोहिया के शब्दों में कहें तो एक है "राज दिवस" है और  दूसरा " जन दिवस " । 

अब जबकि हम अपनी आजादी का 74 वां दिवस मनाने जा रहे हैं तो कुछ चीजों को थोड़ा ठीक ढंग से समझना जरूरी है । यह सच है कि हमने अपनी आजादी को सहेज कर रखने , उसे और संवारने की कोशिशों का सफल और लम्बा सफर तय किया है । जबकि हमसे पहले और हमसे बाद आजाद हुए कई मुल्क उसे उस ढंग से नहीं  रख पाए जैसा उंन्होने सोच था । अगर एक इमरजेंसी को छोड़ दिया जाए जब गलती गलतफहमियों की धुंध ने वक्तितौर पर हमारी आजादी पर ग्रहण लग दिया था , एक भी ऐसा मौका नहीं आया जब हमने अपनी खुदमुख्तारी और जम्हूरी निजाम को रत्ती भर भी खरोंच आने दी हो जबकि हमारा पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान जिसकी पैदाइश हमसे बाबस्ता रही न सहेज पाया और न ही सहेज पा रहा है ।

 हमारी आजादी और हमारी सबसे बड़े लोकतंत्र की सफल यात्रा हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है और हमें उसका झूम कर जश्न मनाने का पूरा हक भी । लेकिन बड़ा सवाल यह कि क्या सिर्फ विदेशियों के हाथ से सत्ता अपने हाथों में ले लेना ही हमारा एक मात्र सपना था ? या आजादी की लड़ाई से उभरी राजनीतिक , सामाजिक , आर्थिक व सांस्कृतिक चेतना की जमीन पर एक ऐसी व्यवस्था निर्माण जो समाज के आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति को सम्मान और सुरक्षा के साथ उसके समग्र विकास का मार्ग प्रशस्त कर सके । अगर ऐसा सपना भी था , तो क्या हम उसे साकार कर पाए हैं ? यदि हाँ तो कितना , यदि नहीं तो क्यों ? इन प्रश्नों और उनके उत्तर का मूल्यांकन तब और महत्वपूर्ण  हो जाता है जब हम 74वां स्वत्रंत्रता दिवस मनाने जा रहे हों। 

             24 जुलाई 1946 को महात्मा गांधी ने आजादी को लेकर अपने मन की बात "हरिजन" के अंक में स्पष्ट किया था , उन्होंने लिखा कि "  आजादी का अर्थ हिंदुस्तान के आम लोगों की आजादी होना चाहिए.. आजादी नीचे से शुरू होनी चाहिए। "  उनकी नजर में ह्णस्वराज्यह्ण का अर्थ था, सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने के लिए निरंतर प्रयास करना। पर क्या यह हुआ ? स्वतंत्र भारत में सत्ता कुछ हाथों की बंधक बन गई। जिस  उपभोक्तावाद और सत्ता केन्द्रीकरण को मुक्कमल आजादी के रास्ते का बाधक माना गया, वही सबसे अधिक प्रभावकारी औजार बना दिए गये। नतीजा  यह हुआ कि भारत की राजसत्ता को तो आजादी मिली, लेकिन निर्णय लेने की वास्तविक आजादी आम आदमी के हाथों तक कभी नहीं पहुंच सकी।

गांधी जी, गांवों को भारत की रीढ़ मानते थे।  स्वराज के लिए वह गांवकी इकाई को सरकारी नियंत्रण से मुक्त रखना जरूरी समझते थे और इसके लिए पंचायतों को एक औजार की तरह देखते थे। किंतु क्या आजाद होने के बाद भारत के गांव, हमारी ग्राम पंचायतें, स्थानीय नगर निकाय, हमारी कृषि, उद्यम, शिक्षा, रोजगार व कर व्यवस्था के संचालन से लेकर हमारी सार्वजनिक प्राकृतिक संपदा तक सरकारी नियंत्रण से मुक्त हो पाये ? 73वें व 74वें संविधान संशोधन का असल मकसद ग्राम पंचायतों व स्थानीय नगर निकायों को ह्णसेल्फ गवर्नमेंटह्ण यानी सबसे छोटी सामुदायिक इकाई की अपनी सरकार का संवैधानिक दर्जा देना था, किंतु राज्य सरकारों ने संशोधन की मूल मंशा को आज तक पूरा नहीं होने दिया। हमारे पंचायती राज संस्थान, राज्य सरकारों के ग्राम्य विकास विभाग तथा बीडीओ, सीडीओ जैसे अधिकारियों के अधीन कार्यरत एक क्रियान्वयन एजेंसी से अधिक कुछ नहीं हो सके हैं। नगर निकाय भी प्रशासकों के अधीन हैं।

                         आज हम सिर्फ कहने के लिए ही विकासशील हैं, देश के मौजूदा हालात देखकर नहीं लगता कि व्यवस्था या अर्थव्यवस्था में कोई परिवर्तन आया है। हां, हालात और बदतर जरूर हो गए हैं। कहने को तो हमारा देश विकासशील है और अपनी उन्नति व सफलता के नए अध्याय लिख रहा है लेकिन ये कैसी उन्नति है जहां देश की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा हिस्सा दो जून की रोटी के लिए भी संघर्ष कर रहा है, अन्य मूलभूत सुविधाओं की प्राप्ति तो उनके लिए बहुत दूर की बात है। एक ओर देश का नौजवान पढ़ा-लिखा होकर भी नौकरी को तरस रहा है, तो दूसरी ओर कुछ बच्चे प्राथमिक शिक्षा से भी महरूम हैं। ऐसा नहीं कि नौकरी न पाने वाले उन युवाओं में प्रतिभाओं की कमी है या फिर शिक्षा से दूर ये बच्चे मंदबुद्धि हैं। कमी इनमें नहीं हमारी व्यवस्था में है। जहां सबको समानता से अपनी आजाद जिंदगी जीने का अधिकार तो है, परन्तु उन अधिकारों को प्राप्त करने की सुविधाएं नहीं। आज जैसे-जैसे देश में संपन्न लोगों की संख्या में इजाफा हो रहा है वैसे-वैसे गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों व उनकी लाचारी में भी इजाफा हो रहा है।

     

 आजादी के इस लंबे सफर में सबसे बड़ी चोट तो  सामाजिक व साम्प्रदायिक समरसता और लोकतांत्रिक मूल्यों व संस्थाओं पर पड़ी है जिन्हें हमने लम्बे संघर्ष से हासिल किया और तराश कर खड़ा किया । हाल के वर्षों में इन पर हमले और तेज हो गए हैं । ऐसी कोशिशों पर एतराज जताने वालों को देशद्रोही ठहराया जा रहा । आजादी के बाद जिस सबसे बड़ी चीज को हम गंवाने की राह पर चल पड़े हैं वो है देशभक्ति की परिभाषा   और जो लोग  इस रास्ते को गढ़ने में जुटे हैं वो खुद स्वातंत्र्य आंदोलन की उस मुख्य धारा के विपरीत खड़े थे जिसने सम्पूर्ण राष्ट्र को न सिर्फ तमाम विभिन्नता के बावजूद एक सूत्र में पिरोया बल्कि एक नई राजनीतिक चेतना के साथ लोकतांत्रिक निजाम की बुनियाद भी रखी। 


उस दौर में सरकार के खिलाफ खड़े लोगों को देशभक्त कहा जाता था जबकि अब सत्ता की जन विरोधी  और दमनकारी नीतियों के मुखालिफ लोगों की वतनपरस्ती पर सवाल खड़े किए जाते हैं ।  महात्मा गाँधी ने किसी ऐसे व्यक्ति या विचारधारा को देशद्रोही नहीं कहा जो उनके खिलाफ थी या असहमत थी। जबकि जनता के लिए उनकी ऐसी कोई भी बात पत्थर की लकीर ही होती। 42 के अंग्रजो भारत छोड़ो आंदोलन में समूचा देश करो या मरो के संकल्प के साथ आहुति के लिए उठ खड़ा था। सभी अपनी अपनी क्षमता के अनुरूप अपनी भूमिका अदा कर रहे थे जबकि कम्युनिस्ट पार्टी , मुस्लिम लीग , आर एस एस के लोग और यहां तक कि अम्बेडकर भी उस आंदोलन के विरोध में थे लेकिन महात्मा गाँधी या काँग्रेस के किसी भी अन्य बड़े नेता ने आंदोलन के साथ न आने वालों या कांग्रेस का विरोध करने वालों को देशद्रोही नहीं कहा। 

कल्पना ही की जा सकती है कि अगर गाँधी जी किसी को देशद्रोही कह देते तो उसके माथे पर कलंक का ऐसा टीका लग जाता जिसे किसी सूरत में मिटाया नहीं जा सकता था। लेकिन वे जानते थे कि असहमत होना देशद्रोही होना नहीं । आज हम अपनी सहिष्णुता और संवाद का मिजाज खोते जा रहे। उसकी जगह एक खतरनाक नस्लीय नफरत की खेती में जुटे हैं जो हिंसक भीड़ की फसल उगा रही है जो सामाजिक समरसता के ताने बाने को झुलसाने के साथ ही दुनिया में हमारी एक सभ्य और लोकतांत्रिक पहचान को खरोंच लगा रही । 

                 अब थोड़ी सी बात जो हमने पाया है उस पर। हमारी आजादी और उसे हासिल करने के संघर्ष ने हमे जो सबसे बड़ी चीज दी वो है अन्याय के खिलाफ बेखौफ तन कर खड़ा होने की , डर को जीतने की और भविष्य के रंगीन सपनों को देखने की । यह हौसला और जज्बा मिला गांधी , लोहिया , जयप्रकाश नारायण सरीखे रहनुमाओं से जिन्होंने हमें सिखाया समता , सम्पन्नता पर आधारित ,  हर किस्म के भेद भाव से रहित लोकतांत्रिक समाज व्यवस्था की संरचना के प्रति सतत व समर्पित मुहिम में जुटा रहना । यही वो पूंजी है जिसे जरूरत है  सहेज और सम्हाल कर रखने की । इन्होंने बताया कि डरे हुए इंसानों से मरा हुआ समाज बनता है ।

 यही वो मन्त्र है जो हमे आजादी की लड़ाई के अधूरे लक्ष्यों को हासिल करने में मदगार होगा । अब तय हमें करना है कि कैसा समाज बनाना है - डरा हुआ - मरा हुआ या जिंदा और संवेदनशील समाज ? नि:सन्देह हमारी आजादी और उसका दिवस गर्व करने वाली उपलब्धि है पर जो कौम सिर्फ जश्न मनाने में डूबी रहती है , अपने सपनों और संकल्पों को भूल जाती है , वह अपने लिए और आने वाली पीढ़ी के लिए मुसीबतों का जंगल उगाने वाली साबित होती है । किसी भी तरक्की पसन्द समाज के लिए आवश्यक है कि वह आत्ममुग्ध नेतृत्व के आभामंडल से परे हट कर तीन बिंदुओं पर सदैव सजग रहे पहला अतीत के पन्नों से शुभ को ग्रहण करे और गलतियों से सबक ले , दूसरा वर्तमान की परिस्थितियों का बेहतर आंकलन और तीसरा भविष्य की संभावनाओं पर नजर । 15 अगस्त के मौके पर अगर हम सब जश्न मनाने के साथ ही इन कसौटियों पर कसने का भी काम करें तो निश्चित रूप से हमें एक और 9 अगस्त की जरूरत नहीं होगी , नहीं तो इस बात से इनकार करना मुश्किल होगा कि देर सबेर 9अगस्त खुद को दोहरा सकता है ।



(लेखक जाने-माने पत्रकार एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं )

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