Wednesday, 20 May 2020

मोदी का ‘आत्मनिर्भर भारत’ आर्थिक गुलामी की ओर

किसान क्रांति : गरीबों के निवाले भी सियासत, छीन लेती है- पार्ट 4
रविकांत सिंह 'द्रष्टा' 

‘आत्मनिर्भर’ एक आध्यात्मिक ज्ञान है। जिसका तात्पर्य है स्वस्थ मन और विवेक से स्वतंत्र निर्णय लेना। बस केवल इतना ही। अर्थात् व्यक्ति का जीवन, उसकी कलात्मकता किसी अन्य के निर्णय से दबाव मुक्त हो। निर्णय ये लेना कि हमें अपने स्वाभिमान को मारकर जीवन निर्वाह नहीं करना है। 

किसान खाद्य मंडियों पर और व्यापारी किसानों पर। मजदूर उद्योगों पर और उद्योगपति मजदूरों पर। बेरोजगार अभिभावकों पर और नेता बेरोजगारों पर। नौकर घरेलु कामों पर और अमीरों की बीबीयां नौकरों पर। इस प्रकार देश के सामान्य नागरिक सरकारी बाबुओं और नेताओं पर निर्भर है। तो, क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वास्तव में ऐसी निर्भरता को खत्म करके आत्मनिर्भर भारत बनाना चाहते हैं? या उनका ये पैकेज देश के नागरिकों को आर्थिक गुलाम बना रहा है।
 
‘द्रष्टा’ कुछ तथ्यों का अवलोकन कर रहा है। पहला ये कि क्या व्यक्ति, संस्थाएं और सरकारें कर्ज लेकर आत्मनिर्भर बन सकती हैं? और कर्ज में डूबोकर सरकार कैसे नागरिकों को आत्मनिर्भर बना सकती है? नागरिकों के अधिकारों का हनन कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके मंत्री कैसे भारत को आत्मनिर्भर बना सकते है।  


भारतीय अरबपतियों की संम्पत्ति 2018 में प्रतिदिन 2,200 करोड़ रुपये बढ़ रही थी। इस दौरान देश के शीर्ष एक प्रतिशत अमीरों की संम्पत्ति में 39 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि 50 प्रतिशत गरीब आबादी की संम्पत्ति में महज 3 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। ऑक्सफेम की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के शीर्ष 9 अमीरों की संम्पत्ति 50 प्रतिशत गरीब आबादी के बराबर हैं। ऑक्सफेम ने 2017 में भी यह कहा था कि भारत के कुल संपत्ति के सृजन का 73 प्रतिशत हिस्सा केवल एक प्रतिशत अमीर लोगों के हाथों में है। और देश के एक प्रतिशत अमीरों की संपत्ति बढ़कर 20.9 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो गई।

ऑक्सफेम  के साथ एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की उसी समय की रिपोर्ट है जब नोटबंदी के बाद साल 2017-18 में भाजपा की कुल आय 1,027 करोड़ रुपये थी। 2018-19 में भाजपा की आय बढ़कर 2,410 करोड़ हो गयी। यानि भाजपा की आय में 134 प्रतिशत की वृद्धि हो गयी। कांग्रेस पार्टी जो सत्ता में नहीं है उसकी 2018-19 की कमाई में चार गुना बढ़ोत्तरी हो गयी। 2017-18 में कांग्रेस की आय 199 करोड़ रुपये थी। जो 2018-19 में बढ़कर 918 करोड़ हो गयी। यानि कांग्रेस की आय में 361 प्रतिशत की वृद्धि हुयी थी। कर्ज में डूबकर किसान और मजदूर आत्महत्या कर रहे थे। और अमीरों के साथ देश के प्रमुख दलों की दिन दुगनी रात चौगुनी तरक्की हो रही थी।
इस साल संयुक्त राष्ट्र के श्रम निकाय ने चेतावनी दी है कि कोरोना वायरस संकट के कारण भारत में अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले लगभग 40 करोड़ लोग गरीबी में फंस कर उनका जीवन नरकीय हो जायेगा। देश में किसान और मजदूर स्वतंत्र निर्णय न ले सकें इसके लिए 2014 से सरकारों की प्राथमिकता किसान और मजदूरों को भिखारी और पूँजीवादियों पर आश्रित बनाने की रही है। ताकि किसान और मजदूरों से स्वतंत्र निर्णय लेने के अधिकार छिनने वाली दुष्ट शक्तियां पूॅजीवादी कॉरपोरेट और राजनेताओं के गठबंधन से बने बाजार में 40 करोड़ किसान और मजदूर को आसानी से बेच सकें।


 विजय जावंदिया 
ऑक्सफेम की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में रहने वाले 13.6 करोड़ लोग साल 2004 से ही कर्जदार बने हुए हैं। दुनिया के सबसे बेरोजगार, कर्जदार देश की आर्थिक हालात को सुधारने के नाम पर एक बार फिर प्रधानमंत्री मोदी ने किसान और मजदूरों को कर्जदार बनाने के लिए एक बार फिर 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा कर चुके हैं। आर्थिक गुलामी की ओर बढ़ते ‘आत्मनिर्भर भारत’ के आर्थिक विशेषज्ञों ने इस चमक-दमक के लिफाफे में बंद पैकेट का पोस्टमार्टम कर मोदी सरकार के पैकेज की पोल खोलकर रख दी। 


किसान नेता और कृषि अर्थशास्त्री विजय जावंदिया का मानना है कि सरकार के सुधार के ऐलान बेतुका और गैरजरुरी हैं। इसके पीछे कॉरपोरेट का बहुत बड़ा हित दिपा है। कारोबारियों और जमाखोरों से हो रहे किसानों के शोषण को रोकने के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम (एएमपीसी) कानून लाया गया था। जो, अनाज बर्बाद होने के डर से किसान जल्दबाजी में अपना पैदावार बेच देते थे। आवश्यक वस्तु अधिनियम हट जाने से न केवल किसानों का शोषण बढ़ेगा बल्कि देश के सामने कालाबाजारी, महंगाई और भुखमरी का खतरा पैदा हो जायेगा। 

आक्सफेम की सीईओ निशा अग्रवाल नें भी कहा था कि 'यह अत्यंत चिंता का विषय है कि देश की अर्थव्यवस्था में हुई वृद्धि का फायदा मात्र कुछ लोगों के हाथों के सिमटा जा रहा है। अरबपतियों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी फलती-फूलती अर्थव्यवस्था की नहीं बल्कि एक विफल अर्थव्यवस्था की निशानी है। जो मेहनत कर रहे हैं, देश के लिए भोजन की व्यवस्था कर रहे हैं, मकान व इमारतों का निर्माण कर रहे हैं, कारखानों में काम कर रहे हैं, वें अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए, दवाओं को खरीदने व अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी तक जुटा पाने के लिए अत्यंत संघर्ष कर रहे हैं। यह बढ़ती खाई, लोकतंत्र को खोखला बनाती है और भ्रष्टाचार व पक्षपात को बढ़ावा देती है।'

किसानों को एक बार फिर कर्ज में दबाकर है और मजदूरोें के जीवन रक्षक अधिकार ‘श्रम एक्ट’ को निष्प्रभावी कर सरकारें शोषण करने के लिए पूॅजीवादियों के सामने किसानों और मजदूरों को परोस रही हैं। ‘द्रष्टा’ देख रहा है कि कोरोना संकट में सरकारें, अपना दायित्व निभाने में फेल हो गयी हैं। मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति और न्यायाधीश नागरिकों के प्रति सभी अपने दायित्व निभाने की शपथ लेते हैं। नागरिकों की जानमाल की रक्षा करना सरकारों का दायित्व है। लेकिन इनकी व्यवस्थाएं हादसा का नाम देकर नागरिकों की सड़कों पर हत्याएं कर रही है। अब सरकार से उम्मीद लगाये किसान और मजदूर इस आर्थिक गुलामी की ओर ले जाने वाले पैकेज की चिता सजा रहे हैं और मातम गीत गा रहे हैं।  

 ( लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं अखिल भारतीय पंचायत परिषद् के राष्ट्रीय महासचिव हैं )

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