Monday, 4 May 2020

क्या किसान और मजदूर भ्रष्ट सरकारी तंत्र को लॉक डाउन कर सकते हैं ?


किसान क्रांति : गरीबों के निवाले भी सियासत, छीन लेती है- पार्ट 2

Ravikant Singh
मेहनतकश नागरिकों की गाढ़ी कमाई लूटकर विदेश भाग जाने वाले चोरों पर सरकार की मेहरबानी और मजदूरों के साथ ऐसी शर्मनाक हरकत के बाद प्रधानमंत्री की मंशा पर सवाल अवश्य खड़ा होता है। पूॅजीवादी कारपोरेट घरानों और राजनेताओं के गठबंधन से बने इस फलते -फूलते बाजार में बेंचे जाने वाले  किसान और मजदूर, सरकार को लॉक डाउन करने की अवश्य क्षमता रखते हैं।..... 


भारत में किसानों के साथ शोषण और मजदूरों को गुलाम बनाने की साजिश के बीच दूनिया भर में पंचायती राज स्थापना दिवस और अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया गया। दूनिया भर के राजनेता किसान और मजदूरों को देवता की तरह पूजते हुए सियासत की ऊंची सीढ़ियां चढ़ते हैं। यह एक तथ्य है। परन्तु, सत्य ये है कि सत्ताधीशों ने एक ऐसे बाजार का निर्माण किया है। जिसमें किसानों और मजदूरों को गुलाम बनाकर लाया जाता है और पूंजीवादियों को बेंच दिया जाता है। पूँजीवादियों और सत्ताधीशों के मजबूत गठजोड़ से यह बाजार फलता-फूलता है। विश्व इतिहास में कई सफल जन क्रान्तियॉं हुयी, सत्ता परिवर्तन हुआ। खुद को खुदा समझने वाले तानाशाह और सत्ताधीश जमीन में दफन हो गये। लेकिन पूँजीवादियों और सत्ताधीशों के इस मजबूत गठजोड़ को अब तक तोड़ा नहीं जा सका है। 

‘द्रष्टा’इतिहास के पन्ने नहीं पलटेगा, किसान और मजदूरों के घाव कुरेदने से भला क्या लाभ? किसान और मजदूर को सत्ताधीश अब भी घाव दे रहे हैं। कुछ किसान और मजदूर के घावों को समय ने भर दिया है और कुछ पीड़ा से तड़पते अपने घावों को चाट रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के श्रम निकाय ने चेतावनी दी है कि कोरोना वायरस संकट के कारण भारत में अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले लगभग 40 करोड़ लोग गरीबी में फंस सकते हैं। और दुनिया भर में 19.5 करोड़ लोगों की पूर्णकालिक नौकरी छूट सकती है।

किसान क्रांति : गरीबों के निवाले भी सियासत, छीन लेती है -पार्ट 1

किसान और मजदूर अथक् श्रम करके जीवन निर्वाह करते हैं। अद्भुत धैर्य और साहस इनके रक्त में प्रवाह करता है। त्याग और बलिदान किसान और मजदूर की नियति है। श्रम सर्वत्र पूजित है। परन्तु, ज्ञान के बिना श्रम का महत्व नहीं है। क्योंकि ज्ञान के बगैर श्रम स्थापित नहीं हो सकता है जिससे, श्रमिक अपना अस्तित्व खो देता है। ‘द्रष्टा’ नकलची नेताओं की क्रान्तियों को महत्व नहीं देता है। समय में परिवर्तन होता है, आवश्यकताओं का स्वरुप बदलता है। इस तरह क्रान्ति की रणनीति भी बदलनी आवश्यक है। 

‘द्रष्टा’ ऐसा क्यों कह रहा है? किसान और मजदूर हितैशीयों को समझना होगा कि जो, नेता किताबें पढ़कर या ऐतिहासिक क्रान्तियों के अनुभवी और गवाह रहे हैं वो, आज के राजनेता हैं। और जो राजनेता न बन सके हैं, वे राजसत्ता के भाग्यविधाता बन बैठे हैं। ऐसे राजनेताओं और पूंजीपतियों का गठबंधन खुलकर लोगों के सामने है। और इसे तोड़ने वाली शक्तियां स्वार्थ के कारण निष्क्रिय हो चुकी हैं। 

कोरोना जैसी महामारी ने जो सीख मानव समाज को दिया है। वह अद्भुत है। कोरोना महामारी ने मानव सभ्यता का दंभ, संस्कृति, वैज्ञानिकता और धार्मिक उन्माद में पगलाए लोगों की धज्जियां उड़ाकर रख दी है। स्वतंत्रता की जगह स्वच्छंदता खोजने वाले व्यक्ति अब गुलामी की तरह जीना सीख रहे हैं। सब्जी खरीदने के लिए बड़ी-बड़ी गाड़ियां लेकर चलने वाले घरों में महामारी के खौफ से दुबके पड़े हैं। उनके पास पर्याप्त संसाधन है। धन-दौलत है लेकिन स्वतंत्रता नहीं है। कोरोना ने स्वभाव से उदंड मनुष्यों को उनकी मर्यादा (औकात) में रहना सीखा दिया है। इस महामारी से मानव समाज जल्द ही मुक्त हो जायेगा लेकिन क्या वह अपनी उदंड प्रवृत्ति से मुक्त हो सकेगा? नहीं। मुक्ती के साथ ही मानव का अहम् भी जागेगा। वह महामारी पर स्वयं को विजेता साबित करेगा। सत्ताधीश अपनी पीठ थपथपाएंगे। और फिर सभी उन्माद के रास्ते पर निकल पड़ेंगे।

‘द्रष्टा’ का आशय यह है कि सत्ताधीशों के दुश्मन जागरुक लोग हैं। पिछले कुछ सालों से सत्ता ने साबित कर दिया है कि जागरुक लोगों की अब देश को आवश्यकता नहीं है। लॉक डाउन आवश्यक है, अचानक व्यवस्था में आई कमियों को सुधारने के लिए ताकि, बिगड़ रही देश की परिस्थिति को आसानी से नियंत्रित किया जा सके। लेकिन इस महामारी में सत्ता और पूँजीवादियों का बाजार तेजी से फलफूल रहा है। सत्ताधीशों ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है। देश में फैल रही कोरोना महामारी के दौरान ही मार्च महीने की शुरूआत में सत्ता का नंगा नाच मध्य प्रदेश में देखने को मिला। और अब महाराष्ट्र में दिख रहा है। सड़कों पर कोरोना से अधिक सरकार की लाठियों का भय आम लोगों में दिख रहा है। व्यक्ति के साथ सारी जागरुकता भी लॉक डाउन हो चुकी है। व्यक्ति में बच गया है तो, केवल आक्रोश। वह भी मजदूर और किसान वर्ग में। 

लॉक डाउन की वजह से देश में जो हालात पैदा हुए हैं वह इस महामारी से कई गुना अधिक भयावह है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने अपनी रिपोर्ट ‘आईएलओ’ निगरानी- दूसरा संस्करण : कोविड-19 और वैश्विक कामकाज' में कोरोना वायरस संकट को दूसरे विश्व युद्ध के बाद सबसे भयानक संकट बताया है। आईएलओ के महानिदेशक गाय राइडर ने कहा है कि ‘‘विकसित और विकासशील दोनों अर्थव्यवस्थाओं में श्रमिकों और व्यवसायों को तबाही का सामना करना पड़ रहा है। हमें तेजी से, निर्णायक रूप से और एक साथ कदम उठाने होंगे।''

भारत सरकार ने इस रिपोर्ट के बाद कृषि क्षेत्र व एमएसएमई से जुड़े उद्योगों को प्राथमिकता देना शुरू कर दिया है। कृषि विकास के लिए नाबार्ड को आरबीआई ने 25 हजार करोड़ की शुरूआती मदद की घोषणा की है। 24 अप्रैल, पंचायती राज स्थापना दिवस को प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी कहा कि सरकार की प्राथमिकता गॉवों को आत्मनिर्भर बनाने की है। अब तक प्रधानमंत्री मोदी का निर्णय और सरकार की प्रवृत्ति किसान और मजदूरों के खिलाफ रही है। ‘द्रष्टा’ उम्मीद कर रहा है कि कोरोना महामारी के कारण पैदा हुए आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक संकट से उबरने के लिए सरकार अपनी प्रवृत्ति में बदलाव ला रही है। जो, एक शुभ संकेत है। पंचायती राज स्थापना दिवस के मौक पर प्रधानमंत्री ने स्वामित्व योजना का भी लोकार्पण किया। सरकार के इस निर्णय पर किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। लेकिन सरकार की मंशा पर सवाल अवश्य खड़ा होता है। 

देश का सरकारी तंत्र चोर, डकैत भ्रष्ट व्यापारियों के साथ मिलकर काम कर रहा है। इस बात का सबूत हाल ही में खलबली मचा देने वाली एक सरकारी रिपोर्ट के खुलासे में मिला। सूचना के अधिकार (आरटीआई) द्वारा मॉंगे गये जबाब में आरबीआई ने बताया है कि 2018 के भगोड़े मेहुल चौकसी, नीरव मोदी, विजय माल्या जैसे 50 बड़े विलफूल डिफाल्टरों के 68,607 करोड़ रुपये सरकार ने माफ कर दिये हैं। बाद में आरबीआई ने इस आरटीआई पर सफाई भी दी। 

दूसरी तरफ कानून का सम्मान करने वाले किसान व मजदूर फटेहाल दयनीय जीवन जीने को मजबूर हैं। अलग-अलग राज्यों में काम कर रहे मजदूरों को सरकार ने लॉक डाउन में फँसा दिया। कुछ पैसे खर्च करने से पहले घड़ी-घड़ी अपने जेब टटोलने वाले मजदूरों को अपने सामने रोजी-रोटी का संकट दिखने लगा। सरकार की तैयारियों और प्रधानमंत्री के वादों पर मजदूरों ने भरोसा रखा। लेकिन धैर्य की भी एक मर्यादा होती है। पूर्व अनुभवों, मालिकों का रुखा व्यवहार और आलसी नौकरशाहों की अव्यवस्था ने मजदूरों का धैर्य तोड़ दिया। मजदूर जब अपने घरों की तरफ लौटने लगे, तो आपने कोरोना का डर दिखाकर रोकने की भरपूर कोशिश की। रेलवे ने लॉक डाउन में रेल टिकट बेंचे, और रुपये लेने के बाद ट्रेनों को रद्द किया। सरकार ने मजदूरों का भरोसा तोड़ा। मई माह में राज्यों से मजदूरों को नि:शुल्क घर वापसी के लिए प्रधानमंत्री ने घोषणा की। जब मजदूर रेल में यात्रा के लिए बैठे तो उनसे किराये की वसूली की गयी। देश के नागरिक समझ सकते हैं कि सरकार एक तरफ पूरी कृषि क्षेत्र और किसानों के लिए 25 हजार करोड़ नाबार्ड को देता है और दूसरी तरफ केवल 50 हेराफेरी करने वाले चोरों के 68,607 करोड़ रुपये सरकार माफ कर देती है। मेहनतकश नागरिकों की गाढ़ी कमाई लूटकर विदेश भाग जाने वाले चोरों पर सरकार की मेहरबानी और मजदूरों के साथ ऐसी शर्मनाक हरकत के बाद प्रधानमंत्री की मंशा पर सवाल अवश्य खड़ा होता है।

छोटे रुठे बच्चों को मनाने के लिए अभिभावक जो उपाय करता है वही, सरकार किसान और मजदूर के साथ कर रही है। किसान और मजदूर को योजनाओं का ललीपाप देकर लोरियां और पंचतंत्र की कहानियों की तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी टेप रिकॉर्डिग सुनाते हैं। किसान और मजदूर इस लालीपाप को लेकर खुश हो जाता है। परन्तु, सरकार अभिभावक नहीं है और न ही किसान व मजदूर छोटे बच्चे। ये अपने श्रम शक्ति से देश की प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले इस देश के भाग्यविधाता हैं। भावना प्रधान किसान और मजदूर वर्ग की गलती केवल इतनी है कि ये सरकार जैसी संस्था पर अटूट भरोसा रखते हैं। राजनेता या सरकार किन विदेशाी संस्थाओं की कठपूतली है वहॉं तक, इनकी दृष्टि नहीं पहुंचती है। किसान और मजदूर वर्ग के पास वह ज्ञान नहीं है जो, इन्हें स्थापित कर सके। लेकिन पूॅजीवादी कार्पोरेट घरानों और राजनेताओं के गठबंधन से बने इस फलते -फूलते बाजार में बेंचे जाने वाले ये किसान और मजदूर, सरकार को लॉक डाउन करने की अवश्य क्षमता रखते हैं।..... 







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