Sunday, 30 August 2020

पंचायत चुनाव: ग्राम सभा के अधिकारों का दमन करने वाली सलाह दे रहे हैं सरकार के मंत्री - रविकांत सिंह


-पंचायत चुनाव के उम्मीदवारों की योग्यता का निर्धारण ग्राम सभा का अधिकार है। इसके लिए सरकार को अपने संवैधानिक टकराव वाले अधिकारों का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।

-जनप्रतिनिधि के चुनाव के लिए दो से कम बच्चे और शैक्षणिक योग्यता ही केवल मानदण्ड नहीं हो सकता है। कोई जरुरी नहीं है कि शैक्षणिक योग्यता रखने वाला ही जनप्रतिनिधि चरित्रवान, विवेकी, कर्तव्यनिष्ठ और सही और गलत में अन्तर जानने वाला हो।

- केन्द्रिय मंत्री संजीव बालियान की अधुरी सलाह त्रिस्तरीय पंचायत और केन्द्र सरकार के ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान को बर्बाद कर सकती है।’’ 


नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार का दमनकारी रवैया एक बार फिर देखने को मिल रहा है। सरकार अपराधियों का दमन करते-करते गॉव की सरकार का दमन करने का मन बना रही है। मिडिया रिपोर्ट्स के अनुसार सरकार यह तय करने जा रही है कि त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के उम्मीदवार की शैक्षणिक योग्यता न्यूनतम हाईस्कूल हो और उसके दो से अधिक बच्चे न हों। पंचायती राज्य मंत्री और केन्द्रिय राज्य मंत्री संजीव बालियान ने इस बाबत मुख्यमंत्री योगी को पत्र लिखकर पहल की है। 


राष्ट्रीय महासचिव रविकांत सिंह
 रविकांत सिंह 
सरकार के इन मंत्रियोंं के दिशाहीन और दमनकारी सलाह पर अखिल भारतीय पंचायत परिषद् के राष्ट्रीय महासचिव रविकांत सिंह ने कहा कि ‘‘ पंचायत भारतीय समाज की बुनियादी व्यवस्थाओं में एक है। और यह एक विकेन्द्रिकृत व्यवस्था है। जनसंख्या नियंत्रण व उम्मीदवारों की शैक्षणिक योग्यता की आड़ में सरकार ग्रामीणों के अधिकार नहीं छिन सकती है। त्रिस्तरीय पंचायत को लेकर योगी सरकार जो दिशा-निर्देश तय कर रही है। उससे पंचायती राज जैसी संस्था ध्वस्त हो जायेगी। योग्य प्रतिनिधि का चुनाव करना देश के नागरिकों का अधिकार है इसलिए नागरिक अपने मत (विचार)का प्रयोग करते हैं। 

यह एक कॉमन फैक्टर है कि मतदाता उसी उम्मीदवार को अपना मत देता है जिसका नजरिया समाजहित और देशहित में होता है। इसी आधार पर भारत में विधान सभा, लोक सभा, ग्राम पंचायत और नगर पंचायत के जनप्रतिनिधियों का चुनाव होता है। राज्य सरकार नहीं तय कर सकती की इस गॉव के पंचायत चुनाव में उम्मीदवार कौन होगा और उसकी शैक्षणिक योग्यता कितनी होनी चाहिए? अगर यह सरकारें तय करेंगी तो चुनाव मात्र एक आडम्बर और महत्वहीन हो जायेगा। इस तरह देखा जाये तो, पंचायती चुनाव का अधिकार यूपी सरकार ग्रामीणों से छिन रही है। सरकार की प्रक्रिया असंवैधानिक है। ’’

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महात्मा गॉंधी ने कहा था कि ‘‘आर्थिक सामाजिक व राजनीतिक जीवन में नागरिक समान अधिकार भोगेगा, जिसमें न तो कोई शोषण का स्थान होगा और न सामाजिक ऊंच-नीच की भावना होगी। और अधिकार व सत्ता चाहे वह आर्थिक हो या राजनीतिक समाज के चन्द हाथों में नहीं होगी। वह एक वर्गहीन जातिहीन समाज होगा।’’

रविकांत सिंह ने कहा कि ‘‘ महात्मा गॉंधी के ग्राम स्वराज्य की संकल्पना को ख़त्म करने की सोच वाले वाले इस बात को नहीं समझ पायेंगे। भविष्य से डरे लोग अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए ऐसे दिशाहीन और विवेकहीन मंत्रियों की सलाह को महत्व देते होंगे। पंचायत चुनाव के उम्मीदवारों की योग्यता का निर्धारण ग्राम सभा का अधिकार है। इसके लिए सरकार को अपने संवैधानिक टकराव वाले अधिकारों का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। अभी मुख्य मंत्री ने निर्णय नहीं लिया है लेकिन इस बाबत जल्द ही अखिल भारतीय पंचायत परिषद् राष्ट्रीय अध्यक्ष के नेतृत्व में राज्य प्रतिनिधियों के साथ बैठक करेगी और उत्तर प्रदेश सरकार की इस दिशाहीन कृत्य को रोकने के लिए केन्द्र सरकार के पंचायतीराज मंत्रालय से बात करेगी। और सरकार को बतायेगी कि किस प्रकार केन्द्रिय मंत्री संजीव बालियान की सलाह केन्द्र सरकार के ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान को बर्बाद कर सकती है।’’

केन्द्रिय मंत्री संजीव बालियान

जनप्रतिनिधि के चुनाव के लिए दो से कम बच्चे और शैक्षणिक योग्यता ही केवल मानदण्ड नहीं हो सकता है। कोई जरुरी नहीं है कि शैक्षणिक योग्यता रखने वाला ही जनप्रतिनिधि चरित्रवान, विवेकी, कर्तव्यनिष्ठ और सही और गलत की समझ रखने वाला हो। और ऐसे जनप्रतिनिधियों का चुनाव करने के लिए संसद में मौजूद 30 फीसदी अपराध के आरोपी सांसदों और यूपी के 26 फीसदी विधायकों ने क्या कानून पारित किया है ? जनसंख्या नियंत्रण व उम्मीदवारों की शैक्षणिक योग्यता की आड़ में सरकार ग्रामीणों के अधिकार नहीं छिन सकती है। मेरी सलाह है कि यदि सरकार के पास निर्णय लेने की क्षमता है तो यह तय करे की चरित्रहीन उम्मीदवार, भ्रष्टाचार का दोषी, हत्या के अपराधी और उनके परिवार वाले चुनाव नहीं लड़ सकते हैं ।

समाज को संगठित होने नहीं दिया

महात्मा गॉंधी के ग्राम स्वराज्य की संकल्पना से प्रेरित होकर भारत सरकार ने सन् 2 अक्टूबर 1956 में त्रिस्तरीय पंचायती राज की स्थापना की थी। महात्मा गॉधी का मानना था कि गॉव के लोग आपस में मिलजुलकर, संगठित होकर जीवन को सरल बनाये। अशान्ति पैदा करने वाले गैरजरुरी संघर्षों से मुक्त होकर देश के चहुंमुखी विकास के लिए ग्रामीण अपना योगदान दें। लेकिन घृणा, द्वेष और स्वार्थ से भरे व्यक्तियों ने समाज को संगठित होने ही नहीं दिया। और आज भी वे अशान्ति और गैरजरुरी बातों को समाज पर थोप रहे हैं। ऐसे व्यक्ति सभी राजनीतिक दलों और समाजिक संस्थाओं से जुड़े हैं। 

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अखिल भारतीय पंचायत परिषद् के संस्थापक बलवंत राय मेहता और लोक नायक जय प्रकाश नारायण के अथक प्रयासों के बाद 24 अप्रैल 1992 को पंचायतों को संवैधानिक दर्जा हासिल हुआ। पंचायतीराज की जनक और संवैधानिक दर्जा दिलाने वाली अखिल भारतीय पंचायत परिषद् को भी ऐसे ही लोगों ने महत्वहीन करने की कोशिश की है। लेकिन हम संभल गये है। अब इनकी दाल गलने नहीं देंगे। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘आत्मनिर्भर भारत ’अभियान की सफलता के लिए गॉंवो को आत्मनिर्भर बनाने की बात करते है तो, वहीं उनके मंत्री और राज्य सरकारें ग्राम सभा के अधिकारों का दमन करने वाली षड़यंत्रकारी योजना बना रहे हैं।


अधिकतर गॉवों में अशिक्षित लोग हैं

महासचिव ने कहा कि भ्रष्ट अफसरशाही लोकतंत्र की बुनियाद को कमजोर करने की सदैव से कोशिश करते रहे हैं। पंचायतें और ग्राम सभा को अधिकार उनके लूट-खसोट में बाधक हैं। इसलिए अभी तक भ्रष्ट नेता और अफसर ग्राम सभाओं के अधिकारों का दमन करते रहे हैं। ग्रामीण पृष्ठभूमि से आये ऐसे मंत्री भी गॉवों की सामाजिक स्थिति जानने में असक्षम साबित हो रहे है।

अवश्य पढ़ें:गॉव आत्मनिर्भर होते तो, प्रधानमंत्री को माफी नहीं मांगनी पड़ती

 यूपी के 4 जिलों की ग्रामीण आबादी की साक्षरता दर लगभग 30-40 और 15 जिलों की 41-49 प्रतिशत है। कई ब्लाकों (खण्ड) के अधिकतर गॉवों में अशिक्षित लोग हैं। ‘‘उत्तर प्रदेश सरकार ये बताये कि ‘‘क्या ग्राम प्रधान का उम्मीदवार भी सरकार के लोग तय करेंगे और गॉव वालों को उसका चुनाव करने के लिए विवश किया जायेगा? गॉव वालों को शिक्षित और जागरुक करने में ऐसे असफल राजनेता ग्रामीणों पर ठीकरा फोड़ने की आदत से बाज नहीं आ रहे हैं।’’  


(यह संस्थागत प्रतिनिधि का बयान है कृपया पाठक  द्रष्टा न्यूज़ से न जोड़ें ) 

Saturday, 22 August 2020

गौसेवा के नाम पर गायों का चारा और जमीन हड़प रहे हैं अधिकारी, गौरक्षक भी हुए लापता

गौ प्रेम कथा -1 

रविकांत सिंह 'द्रष्टा'


- शिकायत करने पर किसान मंच के प्रदेश अध्यक्ष देवेन्द्र तिवारी को मिल रही है धमकी

-गौशालाओं के बारे में उच्च न्यायालय ने जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान यूपी सरकार से पूछे हैं कई सवाल

-बीमारी और कुपोषण से गौवंश की मौत से इंकार कर चुके हैं  उत्तर प्रदेश केपशुधन मंत्री चौधरी लक्ष्मी नारायण 

  

बीजेपी और उसके सहयोगी दलों का गौवंश से प्रेम उफान पर रहता है। बीजेपी की राजसत्ता जिन राज्यों में है वहां ऐसी मान्यता है कि गौवंश सुरक्षित विचरण करते हैं। उन्हें पीटना तो दूर डांट-डपेटने में भी लोगों को डर लगता है। खौफ इतना कि यदि गोवंश रास्ते से गुजर जाएं तो एक कौम के लोग रास्ता बदल लें और दूसरे हाथ जोड़कर प्रणाम करें। देश ने देखा कि 2014 में बीजेपी की सरकार आने के बाद गायों का महत्व बढ़ गया। खासकर शहरी बच्चों में जो गाय और बैल का भी फर्क नहीं जानते थे वे भी समाचार चैनलों को मनोरंजन चैनल की तरह देखने लगे। 

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े बीजेपी नेताओं का गौ प्रेम हर रोज टेलिविजन के खबरिया चैनलों पर देखने को मिलने लगा। गौमुत्र को गंगाजल से भी पवित्र बताने की परम्परा विकसित कर दी गयी। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, रामदेव ने गाय को सहलाने से कैंसर तक ठीक होने के दावे करने लगीं। गोबर का भाव किसान के प्याज से भी आगे बढ़ गया। गडकरी जी ने गोबर और गौमुत्र से साबुन, अगरबत्ति, बर्तन न जाने क्या-क्या लांच कर एमएसएमई से जोड़ दिया। तथाकथित गौसेवकों ने गाय का महत्व जानने के बाद आसमान सर पर उठा लिया जैसे उन्हें हीरे की खान की जानकारी हो गयी हो। बैसाखनन्दन गौमाता के इन मतवाले बछड़ों ने नागरिकों पर कहर बरसाना शुरु कर दिया। गौरक्षा के नाम पर अपनी सामाजिक वैमनस्यता का प्रमाण देते हुए न जाने कितनों के घर तबाह किये। किसी मां के बेटे को तो किसी के बाप, भाई को पीट-पीटकर दिनदहाड़े भरी भीड़ में मार डाले। अधिकारी भी सत्ता के डर से या सत्ता के संरक्षण में अपनी मलाई तैयार करने लगे।

किसान मंच के उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष देवेन्द्र तिवारी 

गौशालाओं के लिए सरकारों ने खजाने का मुंह खोल दिया। बगैर विकसित प्रबंधनतंत्र के मनमाने तौर-तरीके से गौशालाएं संचालित होने लगीं। और इस प्रकार गौरक्षा और गौसंवर्धन के नाम पर गौ तस्करी, लूट-खसोट और घपले-घोटाले शुरु हो गये। गौसंवर्धन के इस खेल को समझने के लिए किसान मंच के उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष देवेन्द्र तिवारी ने निरीक्षण कर लोगों को जागरुक करने संकल्प लिया और कूद पड़े इस खतरनाक खेल के गौशाला मैदान में।

गौशालाओं की सुरक्षा को लेकर उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल कर चुके देवेन्द्र तिवारी ने ‘द्रष्टा’ से कहा कि गौ- रक्षा के काम में प्रशासन सहयोग नहीं कर रहा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा गौ-वंश की सेवा और उनके प्रेम को देखते हुए मैं भी उत्साह में सरकार की मदद के लिए जुट गया। लेकिन जैसे ही मैंने गौशालाओं का निरीक्षण और जागरुकता अभियान में जनता को जोड़ने लगा तो, प्रशासनिक अधिकारी मदद की बजाय विरोधी तेवर दिखाने लगे। मुख्यमंत्री योगी की पकड़ प्रशासनिक व्यवस्था पर ढीली है इस बात की मुझे जानकारी नहीं थी। गौ-वंश की रक्षा एक पुण्य का काम है और मैं निर्णय ले चुका था। इसलिए अब मैं गौवंश के तस्करों, माफियाओं और प्रशासन के भ्रष्ट अधिकारियों के डराने से पीछे नहीं हट सकता। 

किसान मंच के प्रदेश अध्यक्ष देवेन्द्र तिवारी ने 2017 में लखनऊ और आसपास के जिलों में गोवंश की निगरानी शुरु कर दी। उन्होंने मुख्यमंत्री योगी के दावों की पोल खोल कर रख दी। देवेन्द्र तिवारी ने ‘द्रष्टा’ को बताया कि ‘‘सरकार जिन गौशालाओं में गायों को सुरक्षित रखने व उचित देखभाल करने का दावा करती रही उन गौशालाओं में गौवंश को कुत्ते नोच रहे थे। चारा-पानी न मिलने के कारण उनके शरीर की हड़्डीयां जर्जर हो चुकी थीं। गायें अपना बचाव भी नहीं कर पा रहीं थी। कुछ गौशालाओं से गायें गायब की जा चुकी थीं। गौशालाओं में मरे हुए गोवंश के कारण हवाओं में भयंकर दुर्गंध फैल रही है। आसपास का वातावरण प्रदूषित हो चुका है। गायों पर प्यार से हाथ फेरकर अखबार में फोटो छपवाने वाले मुख्यमंत्री को जानकारी है। लेकिन खबरों के पीछे की हकीकत ये है कि योगी ने गायों से अधिक गौशालाओं के संचालकों से प्रेम प्रदर्शित किया है।’’ 

अक्टूबर 2019 में गौशालाओं में हो रहे भ्रष्टाचार की शिकायत मिलने के बाद सरकार ने जॉच करायी। महाराजगंज के जिलाधिकारी अमरनाथ उपाध्याय, एसडीएम देवेन्द्र कुमारव सदमा सत्यम मिश्रा तथा मुख्य पशु अधिकारी वीके मौर्या को निलंबित कर दिया। उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई के भी निर्देश दिये गये। मुख्य सचिव आरके तिवारी ने बताया कि मधुबलियां गोसदन में गोवंश के रखरखाव में अभियान के अनुसार 2500 गोवंश होने चाहिए लेकिन निरीक्षण में मात्र 900 गोवंश पाये गये। 500 एकड़ जमीन पर पशु पालन विभाग का कब्जा था जबकि समिति ने गैरकानूनी ढंग से 380 एकड़ जमीन निजी व्यक्ति को लीज पर दे दी। बगैर विधिक प्रक्रिया अपनाए अधिकारी मनमानी करते रहे और गायों के मुंह का निवाला खाते रहे। उनके हिस्से की जमीन किराये पर दे दिये। 

उत्तर प्रदेश में गौवंश की रक्षा के नाम पर राजनेताओं की कथनी और करनी में बड़ा फर्क है। सरकार किसी भी दल की रही हो लेकिन गौ तस्करी धड़ल्ले से होती रही है। कुछ जगहों पर भ्रष्ट पुलिस तंत्र की कमाई का स्रोत ही पशु तस्करी है। यूपी के ग्रामीण क्षेत्रों में पशु तस्करों की पैठ है। मिर्जापुर के मड़िहान थाना, सोनभद्र के सुकृत चौकी क्षेत्र के रास्ते चन्दौली में कैमूर के जंगलों से होते हुए बिहार के रास्ते गोवंश तस्करी किये जाते हैं। 200 से 250 रुपये प्रति पशु प्रत्येक थाना क्षेत्रों की पुलिस और स्थानीय चरवाहों को देकर पशु तस्कर घृणित कार्य को अंजाम देते हैं। अहरौरा थाना क्षेत्र के लखनिया में वाराणसी के नामी प्रतिष्ठित व्यवसायी के गौशाला में भी पशुओं को काटा जाता है और उनकी हड्डीयों का व्यवसाय किया जाता है। 

यूपी में गौशालाओं के जरिये हो रहे घोटालों और गौ-वंश की तस्करी को रोकने का अभियान चलाने वाले देवेन्द्र तिवारी को तस्करों द्वारा लगातार धमकियां मिल रही हैं। उन्होंने बताया कि उच्च प्रशासनिक अधिकारीयों और आईबी को जानकारी दे दी गई है। इससे पहले भी प्रशासन को अवगत कराया जा चूका है लेकिन उदासीन सरकार और प्रशासन आपराधिक घटनाओं पर तत्पर नहीं है। 

बहरहाल, देश भर में पशु तस्करी धड़ल्ले से हो रही है। शहरों में आवारा घूमने वाले गोवंश को प्रशासन पकड़कर गौशालाओं में दे देते हैं। वहां उचित देखभाल न होने व चारा पानी न मिलने के कारण पशु धीरे-धीरे कमजोर होकर मरने लगते हैं। जो गायें दुधारु नहीं होतीं गौशालाओं के प्रबंधक उनकी पशु तस्करों से सौदेबाजी कर लेते हैं। गौशालाओं में जमा किये गये गाय और बैल का कोई मालिक होने का दावा नहीं करता है और गौशालाओं के प्रबंधन की निगरानी भी प्रशासनिक तंत्र नहीं करता है। इसलिए गौ तस्करी का सारा खेल निर्बाध गति से चलता रहता है।



(त्रुटिपूर्ण पोस्ट के लिए 'द्रष्टा' क्षमाप्रार्थी है इस संबंध में पाठक अपनी राय भेज सकते हैं।) 

Friday, 14 August 2020

जश्न की खुशी और जंग का हौसला ,दोनों जरूरी

प्रदीप कुमार

 क्या आजाद होने के बाद भारत के गांव, हमारी ग्राम पंचायतें, स्थानीय नगर निकाय, मारी कृषि, उद्यम, शिक्षा, रोजगार व कर व्यवस्था के संचालन से लेकर हमारी सार्वजनिक प्राकृतिक संपदा तक सरकारी नियंत्रण से मुक्त हो पाये ?

मुल्क की आजादी को लेकर दो तारीखें बेहद अहम हैं एक तो 15 अगस्त 1947 जब हमने अपनी आजादी का जश्न मनाया था और दूसरी 9 अगस्त 1942 जब हमने अपनी आजादी की जंग का खुला एलान किया था। 15 अगस्त की अहमियत को समझने के लिए जरूरी है कि हम 9अगस्त की अहमियत को खास तवज्जो देकर समझें , ये जाने कि दोनों में फर्क क्या है। एक हमें अपनी खुदमुख्तारी की शुरूआत की याद दिलाती है तो दूसरी उसे हासिल करने की हमारी व्यापक जद्दोजहद, हिम्मत , हौसले और एकजुट कुर्बानियों की । समाजवादी चिन्तक और नेता डा राममनोहर लोहिया के शब्दों में कहें तो एक है "राज दिवस" है और  दूसरा " जन दिवस " । 

अब जबकि हम अपनी आजादी का 74 वां दिवस मनाने जा रहे हैं तो कुछ चीजों को थोड़ा ठीक ढंग से समझना जरूरी है । यह सच है कि हमने अपनी आजादी को सहेज कर रखने , उसे और संवारने की कोशिशों का सफल और लम्बा सफर तय किया है । जबकि हमसे पहले और हमसे बाद आजाद हुए कई मुल्क उसे उस ढंग से नहीं  रख पाए जैसा उंन्होने सोच था । अगर एक इमरजेंसी को छोड़ दिया जाए जब गलती गलतफहमियों की धुंध ने वक्तितौर पर हमारी आजादी पर ग्रहण लग दिया था , एक भी ऐसा मौका नहीं आया जब हमने अपनी खुदमुख्तारी और जम्हूरी निजाम को रत्ती भर भी खरोंच आने दी हो जबकि हमारा पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान जिसकी पैदाइश हमसे बाबस्ता रही न सहेज पाया और न ही सहेज पा रहा है ।

 हमारी आजादी और हमारी सबसे बड़े लोकतंत्र की सफल यात्रा हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि है और हमें उसका झूम कर जश्न मनाने का पूरा हक भी । लेकिन बड़ा सवाल यह कि क्या सिर्फ विदेशियों के हाथ से सत्ता अपने हाथों में ले लेना ही हमारा एक मात्र सपना था ? या आजादी की लड़ाई से उभरी राजनीतिक , सामाजिक , आर्थिक व सांस्कृतिक चेतना की जमीन पर एक ऐसी व्यवस्था निर्माण जो समाज के आखिरी पायदान पर खड़े व्यक्ति को सम्मान और सुरक्षा के साथ उसके समग्र विकास का मार्ग प्रशस्त कर सके । अगर ऐसा सपना भी था , तो क्या हम उसे साकार कर पाए हैं ? यदि हाँ तो कितना , यदि नहीं तो क्यों ? इन प्रश्नों और उनके उत्तर का मूल्यांकन तब और महत्वपूर्ण  हो जाता है जब हम 74वां स्वत्रंत्रता दिवस मनाने जा रहे हों। 

             24 जुलाई 1946 को महात्मा गांधी ने आजादी को लेकर अपने मन की बात "हरिजन" के अंक में स्पष्ट किया था , उन्होंने लिखा कि "  आजादी का अर्थ हिंदुस्तान के आम लोगों की आजादी होना चाहिए.. आजादी नीचे से शुरू होनी चाहिए। "  उनकी नजर में ह्णस्वराज्यह्ण का अर्थ था, सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने के लिए निरंतर प्रयास करना। पर क्या यह हुआ ? स्वतंत्र भारत में सत्ता कुछ हाथों की बंधक बन गई। जिस  उपभोक्तावाद और सत्ता केन्द्रीकरण को मुक्कमल आजादी के रास्ते का बाधक माना गया, वही सबसे अधिक प्रभावकारी औजार बना दिए गये। नतीजा  यह हुआ कि भारत की राजसत्ता को तो आजादी मिली, लेकिन निर्णय लेने की वास्तविक आजादी आम आदमी के हाथों तक कभी नहीं पहुंच सकी।

गांधी जी, गांवों को भारत की रीढ़ मानते थे।  स्वराज के लिए वह गांवकी इकाई को सरकारी नियंत्रण से मुक्त रखना जरूरी समझते थे और इसके लिए पंचायतों को एक औजार की तरह देखते थे। किंतु क्या आजाद होने के बाद भारत के गांव, हमारी ग्राम पंचायतें, स्थानीय नगर निकाय, हमारी कृषि, उद्यम, शिक्षा, रोजगार व कर व्यवस्था के संचालन से लेकर हमारी सार्वजनिक प्राकृतिक संपदा तक सरकारी नियंत्रण से मुक्त हो पाये ? 73वें व 74वें संविधान संशोधन का असल मकसद ग्राम पंचायतों व स्थानीय नगर निकायों को ह्णसेल्फ गवर्नमेंटह्ण यानी सबसे छोटी सामुदायिक इकाई की अपनी सरकार का संवैधानिक दर्जा देना था, किंतु राज्य सरकारों ने संशोधन की मूल मंशा को आज तक पूरा नहीं होने दिया। हमारे पंचायती राज संस्थान, राज्य सरकारों के ग्राम्य विकास विभाग तथा बीडीओ, सीडीओ जैसे अधिकारियों के अधीन कार्यरत एक क्रियान्वयन एजेंसी से अधिक कुछ नहीं हो सके हैं। नगर निकाय भी प्रशासकों के अधीन हैं।

                         आज हम सिर्फ कहने के लिए ही विकासशील हैं, देश के मौजूदा हालात देखकर नहीं लगता कि व्यवस्था या अर्थव्यवस्था में कोई परिवर्तन आया है। हां, हालात और बदतर जरूर हो गए हैं। कहने को तो हमारा देश विकासशील है और अपनी उन्नति व सफलता के नए अध्याय लिख रहा है लेकिन ये कैसी उन्नति है जहां देश की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा हिस्सा दो जून की रोटी के लिए भी संघर्ष कर रहा है, अन्य मूलभूत सुविधाओं की प्राप्ति तो उनके लिए बहुत दूर की बात है। एक ओर देश का नौजवान पढ़ा-लिखा होकर भी नौकरी को तरस रहा है, तो दूसरी ओर कुछ बच्चे प्राथमिक शिक्षा से भी महरूम हैं। ऐसा नहीं कि नौकरी न पाने वाले उन युवाओं में प्रतिभाओं की कमी है या फिर शिक्षा से दूर ये बच्चे मंदबुद्धि हैं। कमी इनमें नहीं हमारी व्यवस्था में है। जहां सबको समानता से अपनी आजाद जिंदगी जीने का अधिकार तो है, परन्तु उन अधिकारों को प्राप्त करने की सुविधाएं नहीं। आज जैसे-जैसे देश में संपन्न लोगों की संख्या में इजाफा हो रहा है वैसे-वैसे गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों व उनकी लाचारी में भी इजाफा हो रहा है।

     

 आजादी के इस लंबे सफर में सबसे बड़ी चोट तो  सामाजिक व साम्प्रदायिक समरसता और लोकतांत्रिक मूल्यों व संस्थाओं पर पड़ी है जिन्हें हमने लम्बे संघर्ष से हासिल किया और तराश कर खड़ा किया । हाल के वर्षों में इन पर हमले और तेज हो गए हैं । ऐसी कोशिशों पर एतराज जताने वालों को देशद्रोही ठहराया जा रहा । आजादी के बाद जिस सबसे बड़ी चीज को हम गंवाने की राह पर चल पड़े हैं वो है देशभक्ति की परिभाषा   और जो लोग  इस रास्ते को गढ़ने में जुटे हैं वो खुद स्वातंत्र्य आंदोलन की उस मुख्य धारा के विपरीत खड़े थे जिसने सम्पूर्ण राष्ट्र को न सिर्फ तमाम विभिन्नता के बावजूद एक सूत्र में पिरोया बल्कि एक नई राजनीतिक चेतना के साथ लोकतांत्रिक निजाम की बुनियाद भी रखी। 


उस दौर में सरकार के खिलाफ खड़े लोगों को देशभक्त कहा जाता था जबकि अब सत्ता की जन विरोधी  और दमनकारी नीतियों के मुखालिफ लोगों की वतनपरस्ती पर सवाल खड़े किए जाते हैं ।  महात्मा गाँधी ने किसी ऐसे व्यक्ति या विचारधारा को देशद्रोही नहीं कहा जो उनके खिलाफ थी या असहमत थी। जबकि जनता के लिए उनकी ऐसी कोई भी बात पत्थर की लकीर ही होती। 42 के अंग्रजो भारत छोड़ो आंदोलन में समूचा देश करो या मरो के संकल्प के साथ आहुति के लिए उठ खड़ा था। सभी अपनी अपनी क्षमता के अनुरूप अपनी भूमिका अदा कर रहे थे जबकि कम्युनिस्ट पार्टी , मुस्लिम लीग , आर एस एस के लोग और यहां तक कि अम्बेडकर भी उस आंदोलन के विरोध में थे लेकिन महात्मा गाँधी या काँग्रेस के किसी भी अन्य बड़े नेता ने आंदोलन के साथ न आने वालों या कांग्रेस का विरोध करने वालों को देशद्रोही नहीं कहा। 

कल्पना ही की जा सकती है कि अगर गाँधी जी किसी को देशद्रोही कह देते तो उसके माथे पर कलंक का ऐसा टीका लग जाता जिसे किसी सूरत में मिटाया नहीं जा सकता था। लेकिन वे जानते थे कि असहमत होना देशद्रोही होना नहीं । आज हम अपनी सहिष्णुता और संवाद का मिजाज खोते जा रहे। उसकी जगह एक खतरनाक नस्लीय नफरत की खेती में जुटे हैं जो हिंसक भीड़ की फसल उगा रही है जो सामाजिक समरसता के ताने बाने को झुलसाने के साथ ही दुनिया में हमारी एक सभ्य और लोकतांत्रिक पहचान को खरोंच लगा रही । 

                 अब थोड़ी सी बात जो हमने पाया है उस पर। हमारी आजादी और उसे हासिल करने के संघर्ष ने हमे जो सबसे बड़ी चीज दी वो है अन्याय के खिलाफ बेखौफ तन कर खड़ा होने की , डर को जीतने की और भविष्य के रंगीन सपनों को देखने की । यह हौसला और जज्बा मिला गांधी , लोहिया , जयप्रकाश नारायण सरीखे रहनुमाओं से जिन्होंने हमें सिखाया समता , सम्पन्नता पर आधारित ,  हर किस्म के भेद भाव से रहित लोकतांत्रिक समाज व्यवस्था की संरचना के प्रति सतत व समर्पित मुहिम में जुटा रहना । यही वो पूंजी है जिसे जरूरत है  सहेज और सम्हाल कर रखने की । इन्होंने बताया कि डरे हुए इंसानों से मरा हुआ समाज बनता है ।

 यही वो मन्त्र है जो हमे आजादी की लड़ाई के अधूरे लक्ष्यों को हासिल करने में मदगार होगा । अब तय हमें करना है कि कैसा समाज बनाना है - डरा हुआ - मरा हुआ या जिंदा और संवेदनशील समाज ? नि:सन्देह हमारी आजादी और उसका दिवस गर्व करने वाली उपलब्धि है पर जो कौम सिर्फ जश्न मनाने में डूबी रहती है , अपने सपनों और संकल्पों को भूल जाती है , वह अपने लिए और आने वाली पीढ़ी के लिए मुसीबतों का जंगल उगाने वाली साबित होती है । किसी भी तरक्की पसन्द समाज के लिए आवश्यक है कि वह आत्ममुग्ध नेतृत्व के आभामंडल से परे हट कर तीन बिंदुओं पर सदैव सजग रहे पहला अतीत के पन्नों से शुभ को ग्रहण करे और गलतियों से सबक ले , दूसरा वर्तमान की परिस्थितियों का बेहतर आंकलन और तीसरा भविष्य की संभावनाओं पर नजर । 15 अगस्त के मौके पर अगर हम सब जश्न मनाने के साथ ही इन कसौटियों पर कसने का भी काम करें तो निश्चित रूप से हमें एक और 9 अगस्त की जरूरत नहीं होगी , नहीं तो इस बात से इनकार करना मुश्किल होगा कि देर सबेर 9अगस्त खुद को दोहरा सकता है ।



(लेखक जाने-माने पत्रकार एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं )

Monday, 10 August 2020

बीएचयू छात्र संघ से जम्मू कश्मीर तक


प्रदीप कुमार
 
मनोज सिन्हा जम्मू कश्मीर के नए उप राज्यपाल होंगे, इस खबर से एक तरफ जहाँ उनके चाहने वालों की खुशी का ठिकाना नहीं , वहीं दूसरी ओर जानकार लोग उनको यह दायित्व सौंपे जाने के मायने भी तलाश रहे हैं । ऐसे लोगों का अंदाजा है कि नरेंद्र मोदी ने उन पर भरोसा जताने के साथ ही एक तीर से कई निशाना साधा है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के बेहद करीब पहुँचने के बाद भी उन्हें रोकने और गाजीपुर से लोकसभा की सीट हारने के बाद मनोज सिन्हा के समर्थक मायूस जरूर थे पर उन्हें लगता था कि हाईकमान राज्य सभा के जरिये उनकी केंद्रीय मंत्रिमंडल में वापसी जरूर करेगा , पर दिन बीतने और तमाम अवसरों के गुजरने के साथ ही उनकी उम्मीदें टूटने लगीं थीं ।

 ऐसे में मनोज सिन्हा को जम्मू कश्मीर का उप राज्यपाल बना कर नरेंद्र मोदी ने यह संदेश दिया कि उन्हें मनोज सिन्हा की योग्यता पर भरोसा है अब गेंद श्री सिन्हा के पाले में है । उन्हें राज्य में केंद्र की निदेर्शों और नीतियों को कुशलता के साथ कार्यान्वित कर हाईकमान की कसौटी पर खुद को खरा साबित करना होगा । वहीं यह भी कहा जा रहा हर कि इस नए दायित्व से मनोज सिन्हा के जनराजनीति की संभावनाओं पर विराम लग गया है । साथ ही उत्तर प्रदेश की राजनीति में सम्भावित मुख्यमंत्री के दावेदारों में से एक चेहरा कम हो गया। तात्कालिक तौर पर यह बात भले ही मायने रखती हो पर राजनीति के मौजूदा वक्त में इन बातों का विशेष अर्थ निकालना सही न होगा , क्योंकि आज की राजनीति में जो दिखता है वह नहीं होता और जो नहीं दिखता वो होता है ।

ऐसा कई बार देखने में आया है कि ऐसे दायित्व सम्भालने के बाद भी लोगों कि सक्रिय राजनीति में ठीक ठाक ढंग से वापसी हुई है , फिर मनोज सिन्हा के पास कम उम्र और लंबे अनुभव का मजबूत आधार भी है । उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति से की । शायद यह कहना गलत न होगा कि उन्होंने राजनीति का ककहरा सुरेश अवस्थी जैसे बौद्धिक दिग्गज के सानिध्य में सीखा और दल और उसके बाहर के असदार माने जाने वालों को किनारे लगाते हुए छात्र संघ अध्यक्ष की कुर्सी तक सफलता पूर्वक पहुँचे । उसके बाद से उनके राजनीतिक करियर का ग्राफ लगातार चढ़ता ही रहा । 

1989 से 1996 तक भाजपा की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य रहे । 1996 में में पहली बार लोकसभा के लिए चुने गए और उंन्होने 1999 में दोबारा जीत हासिल की । वह 2014 में लोकसभा चुनाव में भाजपा के सत्ता में आने पर तीसरी बार निचले सदन के लिए चुने गए। वह रेल राज्य मंत्री रहे हैं और बाद में उन्हें संचार मंत्रालय का स्वतंत्र प्रभार भी सौंपा गया । अपने समर्थकों के बीच उनकी पहचान गाजीपुर के विकास पुरुष के रुप में है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अब वह केवल गाजीपुर ही नहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों में भाजपा के मजबूत स्तम्भ के रूप में स्थापित हो चुके हैं । 

नया दायित्व उनके इम्तिहान की घड़ी है एक तरफ उनके सामने होगी केंद्रीय नेतृत्व की उम्मीदों पर खरा उतरने की चुनौती तो दूसरी ओर पूर्वी उत्तर प्रदेश में अपने जनाधार के बीच अपने नायकत्व की छवि को बनाये रखना । क्योंकि सक्रिय राजनीति में वापसी के लिए इसी छवि और जमीन की जरूरत होगी। अब यह देखने वाली बात होगी कि मनोज सिन्हा जम्मू कश्मीर के तार पूर्वी उत्तरप्रदेश से जोड़ने में कितने कामयाब होंगे । वैसे धारा 370 हटाये जाने के यएक साल बीतने के बाद भी राज्य में चुनौती का जंगल जस का तस बना हुआ है बल्कि उसमें कुछ पहाड़ भी उगने लगे हैं जिन पर चर्चा फिर कभी , आज तो मनोज सिन्हा को नए पद और दायित्व की बधाई , बीएचयू और पूर्वांचल दोनों की तरफ से ■ ■ 

                                                                  (लेखक जाने-माने पत्रकार एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं )

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