रविकांत सिंह 'द्रष्टा'
किसान क्रांति : गरीबों के निवाले भी सियासत, छीन लेती है -पार्ट 2
राजनीति के नाम पर हरामखोरी की दुकान चलाने के लिए इलेक्टोरल बांड जैसी भ्रष्ट योजना बनाने वाले सांसद भला कैसे कृषि बिल का विरोध कर पाते?
सरकार ने कृषि विधेयक 2020 को संसद के दोनों सदनों ने हंगामे के बीच पारित कर दिया है। कृषि विधेयक की खामियों को लेकर कुछ किसान आन्दोलन कर रहे हैं तो, कुछ किसान विधेयक का समर्थन। इस बीच कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा है कि किसानों के लिये फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था जारी रहेगी। इसके अलावा, प्रस्तावित कानून राज्यों के कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) कानूनों का अतिक्रमण नहीं करता है। ये विधेयक यह सुनिश्चित करने के लिये हैं कि किसानों को मंडियों के नियमों के अधीन हुए बिना उनकी उपज के लिये बेहतर मूल्य मिले। उन्होंने कहा कि इन विधेयकों से यह सुनिश्चित होगा कि किसानों को उनकी उपज का बेहतर दाम मिले, इससे प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और निजी निवेश के साथ ही कृषि क्षेत्र में अवसंरचना का विकास होगा और रोजगार के अवसर पैदा होंगे।
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‘द्रष्टा’ ने ‘आर्थिक मंदी के दौरान बीजेपी की दिन दुगनी और कांग्रेस की रात चौगुनी आमदनी’ शीर्षक लेख में स्पष्ट बताया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड से साल 2017-18 में सबसे ज्यादा 210 करोड़ रुपये का चंदा भारतीय जनता पार्टी को मिला है। भाजपा की आॅडिट रिपोर्ट के अनुसार, 2018-19 में उसकी 2,410 करोड़ रुपये की आमदनी में से 1,450 करोड़ रुपये चुनावी बॉन्ड के जरिए आए। ये भाजपा की कुल आय का लगभग 60 प्रतिशत है। जबकि कांग्रेस को 2017-18 की पाप की कमाई हासिल करने वाली प्रतियोगिता में मात्र पांच करोड़ रुपये चुनावी बॉन्ड के जरिए प्राप्त हुए थे। साल 2018-19 में चुनावी बॉन्ड के जरिए कांग्रेस को 383 करोड़ रुपये की आय हुई जो कुल आय की लगभग 48 प्रतिशत है।
किसान को वास्तव में यह खेल समझ में नहीं आ रहा है या वह अपनी अज्ञानता के कारण खेल को समझने का सिर्फ दिखावा कर रहे हैं। 65 प्रतिशत किसान परिवार से आने वाले सांसदों का पूॅजीवादी ताकत के आगे घूटने टेकना पूर्व से ही निश्चित है। करोड़ों रुपये खर्च कर चुनाव में जीते सांसदों को गरीब किसान भला क्या दे सकते हैं? राजनीतिक दलों को करोड़ों रुपये के चुनावी चन्दा किसान नहीं देते यह स्पष्ट है। कॉग्रेस और बीजेपी ने चुनावी बॉंड के जरिये करोड़ों का चन्दा पूँजीपतियों से हासिल किया है। उपरोक्त जानकारी को खुद राजनीतिक दलों ने देश को बताया है। ‘द्रष्टा’ इस विषय पर कई बार लिख चुका है। पूँजीपतियों का करोड़ों रुपये चन्दा खाकर भला किसानों की लड़ाई सांसद कैसे लड़ेंगे? किसान वाकई में बहुत भोले हैं या उन्हें भी सत्ता का खेल मनोरंजक लग रहा है?
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राजनीति के नाम पर हरामखोरी की दुकान चलाने के लिए इलेक्टोरल बांड जैसी भ्रष्ट योजना बनाने वाले सांसद भला कृषि बिल का कैसे विरोध कर पाते? कुछ सांसदों ने विरोध किया तो उन्हें उप सभापति ने निलंबित कर दिया। सत्ता ने देश की आम आवाम को धर्म और जाति के नाम पर लड़ाकर कृषि बिल पर बेवकूफ बनाया। आन्दोलन के झण्डे और और मॉंगपत्र बांटने वाले सत्ता के पिछलग्गु किसान नेता और उनके रहनुमाओं ने कृषि बिल 2020 को कारपोरेट की झोली में डाल दिया। देश की 65 प्रतिशत आबादी खेती करती है और उपभोग भी करती है। कारपोरेट कम्पनियां जिसके पास अकूत दौलत है वे किसानों से खरीदकर उन्हें और अकृषक वर्ग को मनमाने तरीके से खाद्यान्न बेचेंगे। गरीब और पूँजीवादियों की इस प्रतियोगिता में जमाखोरी और कालाबाजारी जमकर होगा। बहरहाल, सांसदों की औक़ात में नहीं था कृषि विधेयक को रोकना। सत्ता ने व्यापार की एक असंतुलित व्यवस्था की शुुुरुआत कर दी है। जो देश की भावी पीढ़ी को अन्धकार में ढकेल देगा।
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