रविकांत सिंह 'द्रष्टा' |
- सत्ताधीश व्यवहारिक कानून न बनाकर नागरिकों के शोषण और पूॅजीपतियों को लाभान्वित करने की नियत वाला कानून क्यों बनाना चाहते हैं? सत्ता से इस प्रश्न के जबाब पूछने की आवश्यकता है।
आमसहमति के बगैर बनने वाले कानूनों का सत्ता और नागरिकों के लिए क्रियान्वयन कितना दुखदायक होता है इसे देश समझ रहा है। एक तरफ सत्ता सरकारी योजनाओं को प्रत्येक नागरिकों तक पहुंचाने के लिए बनी संस्थाओं के अधिकारों का हनन कर रही है तो, दूसरी तरफ योजनाओं का लॉलीपॉप दिखाकर सत्ता नागरिकों को उलझा रही है। सीएए और एनआरसी पहले से ही विवादों में उलझा है। देश के जागरुक नागरिक इस सीएए कानून को संविधान का उलंघन करने वाला कानून मान रहे हंै। जो भारतीय नागरिकों के अधिकारों व उनके स्वाभिमान का गला घोंट रहा है।
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के.एन. गोविन्दाचार्य |
गोविन्दाचार्य ने कहा कि किसान संगठनों की दो प्रमुख मांगें हैं। पहला- केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य गारण्टी कानून बनाए और दूसरा नये बनाए तीन कृषि कानूनों को केन्द्र सरकार वापस ले। 20 जनवरीको किसान संगठनों और केंद्र सरकार के बीच हुई बातचीत में सरकार ने इन विषयों में दो प्रस्ताव किसान संगठनों के सामने रखे हैं। पहली न्यूनतम समर्थन मूल्य पर विचार के लिए केंद्र सरकार एक 11 सदस्यों की समिति बनाने के लिए तैयार है और दूसरी मांग के लिए अगले डेढ़ या दो वर्ष तक केंद्र सरकार तीन कृषि कानूनों को स्थगित रखने को तैयार है।
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‘द्रष्टा’ से उन्होंने कहा कि किसानों में केंद्र सरकार के प्रति इतना अविश्वास व्याप्त है कि इन दोनों प्रस्तावों को वे आंदोलन को भटकाने या भरमाने की चालबाजी मान रहें हैं। सरकारों ने अबतक किसानों के अनेक आंदोलनों को इसी प्रकार के आश्वासन देकर तोड़ा है। बाद में सरकारें अपने वादे से मुकर जाती है या उसे एक और समिति के हवाले करके अंतहीन प्रक्रिया बना देती है। दोनों में से एक भी मांग को मनाए बिना अगर किसान संगठनों के नेता केंद्र सरकार के उपरोक्त दोनों प्रस्तावों को मान कर आंदोलन स्थगित कर देते हैं तो उनकी साख संदेह के घेरे में आ सकती है। उस कारण फिर नजदीक भविष्य में किसानों का प्रभावी आंदोलन खड़ा करना कठिन हो जाएगा। केंद्र सरकार को इस प्रकार से किसान संगठनों और उनके नेताओं को संकट में नहीं फंसाना चाहिए।
इसमें सबसे बेहतर मार्ग है कि केंद्र सरकार किसानों की जायज मांग न्यूनतम समर्थन मूल्य गारण्टी का कानून बनाने की घोषणा करके किसानों का विश्वास पुन: अर्जित कर ले। इसी प्रकार तीन कृषि कानूनों पर पुनर्विचार के लिए एक समिति बनाए। उस समिति के निर्णय तक तीन कृषि कानूनों को स्थगित कर दे। ऐसा करने से केंद्र सरकार के प्रति किसानों में व्याप्त अविश्वास भी दूर होगा, किसान नेताओ की साख पर भी प्रश्न नहीं लगेगा और अभी चल रहे आंदोलन को स्थगित करने का मार्ग निकल सकेगा।
गोविन्दाचार्य जी की सुझाव पर सरकार कितना ध्यान देती है। इसे समय तय करेगा। सत्ताधीश व्यवहारिक कानून न बनाकर नागरिकों के शोषण और कुछ पूॅजीपतियों को लाभान्वित करने की नियत वाला कानून क्यों बनाना चाहते हैं? सत्ता से इस प्रश्न के जबाब पूछने की आवश्यकता है। सुप्रीम कोर्ट की कमेटी ने अपने प्रश्नों की पोटली दुनिया के सामने खोल दी है। कमेटी ने किसानों से 20 सवाल पूछ हैं और एमएसपी से एपीएमसी तक किसानों की समझ को परख रही है। समिति के वेबपेज पर मौजूद फीडबैक फॉर्म में 20 सवाल हैं, जिन्हें 5 खंडों में बांटा गया है।
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द्रष्टा का मानना है कि ‘‘लोकसम्मति के बगैर कानून सफल नहीं हो सकता है। कानून की अपनी मर्यादा होती है। वह स्वत: खड़ा नहीं हो सकता है। कानून अधिकार दे सकता है, अवसर दे सकता है लेकिन वह साधारण नागरिकों तक नहीं पहुंच सकता। वह कभी भी प्रेरणादायि नहीं हो सकता अगर सामान्य नागरिक के अभिमत का अधिष्ठान उसे प्राप्त न हो।’’ अब द्रष्टा कमेटी के एक-एक प्रश्नों व किसानों के उत्तर पर दृष्टि जमाए है। सरकार अब तक किसानों के लिए हितकारी कानून साबित करने में जुटी है लेकिन किसानों ने इसे नकार दिया है। सरकार को कानून बनाते समय किसान नेताओं और ग्राम पंचायतों से राय नहीं ली। 26 जनवरी को ट्रैक्टर मार्च गणतंत्र परेड का डर सरकार को दिखने लगा तो, किसानों की हर बात को कान घूमाकर कबूल करने लगी। सत्ताधीशों का दम्भ अब भी कायम है। लेकिन किसान सत्तामद के इस दम्भ को निगल जायेंगे।
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